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जैनेन्द्र प्रोर सत्य
प्रदर्शन होता है ।
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पूर्ण सत्य श्रज्ञय
प्रश्न उठता है कि 'सत्य' क्या है ? जैनेन्द्र के अनुसार 'सत्य' निर्गुण और निराकार है ।" गाधी ने तो 'सत्य' को ही ईश्वर माना है । जैनेन्द्र के पास एक अकेला अनुभव ईश्वर ही है, उससे बढ़कर कोई सच्चाई हो नही सकती । व्यक्ति अपूर्ण है, राज्य पूर्ण और निरपेक्ष है । अतएव व्यक्ति के द्वारा अभिव्यक्त विचार भी पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति करने में सम्भव नही हो सकता । सत्य का निरपेक्ष रूप 'सत्चिदानन्द' हे । सूक्ष्म अथवा निरपेक्ष सत्य के सम्बन्ध मे भी श्रनेकानेक अभिमत प्रचलित है, किन्तु वे सत्य की सापेक्षता को ही व्यक्त करते है । जैन दर्शन से प्रभावित होने के कारण जैनेन्द्र ने स्यादवाद के आधार पर सत्य के सापेक्ष रूप को ही स्वीकार किया है। जैनेन्द्र के अनुसार सत्य अनन्त है, अकल्पनीय है, अत हम जो कुछ जान सकते है, चाह सकते है, वह एकागी सत्य है । दूसरी दृष्टि से वह प्रसत्य भी हो सकता है । सम्पूर्ण सत्य वह नही है, ' वस्तुत सत्य को जानने से अधिक उसे जानने की जिज्ञासा बनाए रखना ही पर्याप्त है । ' जैनेन्द्र के अनुसार परमेश्वर का पूरी तरह जान लेने का श्राशय हे व्यक्ति का ईश्वर से ऊपर आसीन होना । वस्तुत जानने के प्रयत्न मे कुछ शेष बना ही रहता है, जो व्यक्ति की अपूर्णता का बोध कराता है। जैनेन्द्र के विचार भारतीय विद्वानों के समकक्ष ही प्रतीत होते हे । अन्तिम सत्य को हम नही जान सकते । जो जानते है, वह सत्य नही है । जैनेन्द्र ने स्पष्टत स्वीकार किया है कि सत्य व्यक्ति की अपूर्णता का बोध कराता है। आदर्श तो अखण्ड है, द्वै यथार्थ में ही व्यक्ति की पहुच है, श्रतएव जीवन की यथार्थता ( सत्यता ) ही चर्चा का विषय बनती है । सत्य तो होने मात्र में है, जानने मे नही ।
सत्यबोध अनुभवाश्रित
जैनेन्द्र के साहित्य में सत्य को अनुभूतिगम्य और सम्भाव्य माना गया
१. 'सत्य के निर्गुण रूप को ईश्वर कहेंगे, वह परम कल्याणमय है ।' जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० १३६ । २. "The greatest trouble with us is that we can know and live in only bits of truth at a time and not all of it"'Glimpse of Truth' (p. 97)
३. 'Some may know more, some may know less, what is important is to keep discovery. 'Glimpse of Truth - ( P. 22.)