Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 276
________________ जैनेन्द्र ओर गत्य २७१ क्या है ? सत्य को जाने बिना सारा मान-विज्ञान और दर्शन कोरी कल्पना ही प्रतीत होता है । सत्य की नीव पर ही समस्त दार्शनिक-चिन्तन आरूढ है । सत्य के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानो ने विभिन्न विचार प्रस्तुत किए है। किन्तु सबकी दग्नि मे सत्य एक है। उसो स्वरूप के सम्बन्ध में कोई निरपेक्षा निर्णय नही दिया जा सकता । विभिन्न धर्म और सम्प्रदाय के विचारक तथा दार्शनिक विभिन्न मार्गों से होकर कही लक्ष्य की दिशा में प्रयत्नशील है। सभी गर्मों मे विभिन्न मज्ञाओ द्वारा एक ही रात्य की सत्यता स्वीकार की गई है । नाम अनेक है, किन्तु सब एक ही सत्य का प्रतिनिधित्व करने के कारण मूलत एक ही है। 'भारतीय वेदान्त दर्शन' मे एकमान ब्रह्म को ही सत्य माना गया है । 'ब्रह्म सत्य जगद्मिश्या' के सिद्धान्त के द्वारा ब्रह्म की सत्यता और जगत की निस्सारता पर प्रकाश डाला गया है। शकर के अनुसार ससार का अस्तित्व केवल माया से तथा अज्ञान के कारण ही प्रतिभासित होता है, अन्यथा उसका कोई अस्तित्व नही है, केवल सरितमान् ब्रह्म ही सब कालो मे स्थाई रहता है। एक ही सत्य को विभिन्न रूपो में पायित किया गया है---- 'एको सत्यम् विप्राबहुधावदन्ति ।' ___परम सत्य' यक्ति की पहुच के परे है। वह उसे जानने के प्रयत्न द्वारा उसे जान नही माता । उसका अनुभव ही अपूर्ण प्राग्गियो के लिए पर्याप्त है। मीलिए जना मात्रा को चर्चा का विषय नहीं मानते । एकमात्र सत्य ब्रह्म है, अतान उसकी मां अथवा वाद-विवाद करना व्यर्थ हे । जहा व्यक्ति की पहुंच न हो बहा बरबम अपना अभिमत प्रस्तुत करने में व्यक्ति की अहता का ही प्रस्टीकरण होता है। इसीलिए जैनेन्द्र सत्य को वाद-विवाद की सकीर्णता से ऊपर माना है। अपने अभिमन द्वारा हम सत्य का निषेध करते हुए मत को ही प्रमुखता प्रदान करते है। 'आत्म शिक्षण' ओर पाजेब' मादि कहानियो मे व्यक्तिगत अभिमत द्वारा मत्य को बलपूर्वक नकारने की चेष्टा की गई है, जब तक अभिमत प्रधान रहता है तब तक सत्य का बोध प्राप्त होना कठिन हो जाता है और झूठी घटना ही बलपूर्वक सत्यसिद्ध की जाती है । किन्तु अत मे सत्य मत से परे ही सिद्ध होता है। साहित्य मे सत्य का स्वरूप ___अधिकाशतः सत्य की खोज दार्शनिको की जिज्ञासा का विलय रही है, किन्तु सत्य की खोज का प्रयत्न दार्शनिको की ही बपौती नही है। सामान्य जीवन के १ जैनेन्द्रकुमार' . 'जनेन्द्र की कहानियां', द्वितीय भाग, पृ० २०,४३ ।

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