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जनेन्द्र प्रोर गत्य
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पाप का मल ओर गडाध रहती है।'
सत्य जगत-सापेक्ष
बस्तुत गत्य की उपलब्धि जीवन और जगत की स्वीकारता मे ही राम्भव हो सकती है। व्यावहारिक अथवा स्थूल शक्ति को प्राप्ति के लिए द्वैत का भाव अनिवार्य है। 'स्व', 'पर' के दो तटो के मध्य ही जीवन की सार्थकता है । ससार में दुर जाकर रहने म स्व-मलका भाव की पुष्टि होती है। 'पर' की नही, किन्तु 'स्व', 'पर' के प्रभाव में स्व केन्द्रित होकर विस्तारशून्य हो जाता है। जैनेन्द्र का विश्वास है कि शरीर रहते असागारिक होने की आशा अनावश्यक है। 'समार यदि भगवान का हे तो सासारिक होना भगवद्रोह क्यो ? यदि भगवान नही है तो फिर समार ही नही। इसलिए सराार और भगवान को विरोध की भाषा देकर टकराने से कोई लाभ नही दीखता।'
मनेन्दगार, 'अगवन', पृ. ७७ । २. जैनेन्द्रकुमार : 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० सं० ३६ ।