Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ जनेन्द्र प्रोर गत्य २८६ पाप का मल ओर गडाध रहती है।' सत्य जगत-सापेक्ष बस्तुत गत्य की उपलब्धि जीवन और जगत की स्वीकारता मे ही राम्भव हो सकती है। व्यावहारिक अथवा स्थूल शक्ति को प्राप्ति के लिए द्वैत का भाव अनिवार्य है। 'स्व', 'पर' के दो तटो के मध्य ही जीवन की सार्थकता है । ससार में दुर जाकर रहने म स्व-मलका भाव की पुष्टि होती है। 'पर' की नही, किन्तु 'स्व', 'पर' के प्रभाव में स्व केन्द्रित होकर विस्तारशून्य हो जाता है। जैनेन्द्र का विश्वास है कि शरीर रहते असागारिक होने की आशा अनावश्यक है। 'समार यदि भगवान का हे तो सासारिक होना भगवद्रोह क्यो ? यदि भगवान नही है तो फिर समार ही नही। इसलिए सराार और भगवान को विरोध की भाषा देकर टकराने से कोई लाभ नही दीखता।' मनेन्दगार, 'अगवन', पृ. ७७ । २. जैनेन्द्रकुमार : 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० सं० ३६ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327