Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 302
________________ जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण २६७ अनुभव हो सकता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे-'जीव का अस्तित्व अपने मे अधूरा है, हममे एक-दूसरे और फिर शेष की आवश्यकता मे रहता है । इसलिए सब जीवात्मा का जो अखण्ड चिन्मय स्रोत है, दम्भ-वही है। ऐसा मानकर हमारा जीवन खण्डित होने के बजाय अखण्ड होता है।' अर्द्धनारीश्वर · अद्धत बोधक ___ जैनेन्द्र की दृष्टि मे अहता अथवा 'मै' का सर्वाधिक विगलन काम के मार्ग से ही सम्भव होता है। स्त्री-पुरुष स्वय मे अपूर्ण है। एक-दूसरे की प्राप्ति के द्वारा ही पूर्ण हो सकते है। अर्धनारीश्वर की परिकल्पना द्वारा शास्त्रो मे नर-नारी की पूर्णता की ओर भी इगित किया गया है। मानव जीवन की सश्लिष्टता स्त्री और पुरुष के परस्पर सान्निध्य द्वारा ही सम्भव हो सकती है। प्रेम की चुम्बकीय शक्ति के द्वारा स्त्री-पुरुष परस्परता के द्वारा अहशून्य होते हए भगवत्ता में विलीन होने का प्रयास करते है। प्रेम की पूर्णता के लिए आत्मा और शरीर दोनो का योग अनिवार्य है। प्रेम मे शरीर का निषेध नही है, किन्तु शरीर को लेकर ही प्रेम पूर्ण नही होता । 'यामादिपिट' में भी इस सत्य की ओर इगित किया गया है। उसमे एक स्थल पर स्वीकार किया गया है कि 'प्रेम ? प्रेम यह दो भिन्न धाराप्रो के, दो हृदों के, आत्मानो के, दो व्यक्तियो के मिलकर एक हो जाने का नाम है। सिर्फ शरीरो का सयोग नहीं है।' अतएव व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य द्वैत को उत्सर्ग द्वारा अद्वैतता की ओर उन्मुख करना है। मानसिक सरचना : प्रखण्ड जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष के ऐक्य' पर बल देते हुए उनकी अन्त प्रकृति और वाह्य परिवेश पर प्रकाश डाला है । व्यक्ति का व्यक्तित्व अन्त और बाह्य की समष्टि है। बाह्य-परिवेश की द्वन्द्वात्मक स्थितियो के चित्रण द्वारा जीवन की समग्रता का बोध कदापि नही हो.सकता। जैनेन्द्र ने अन्त.प्रकृति के बोध के लिए व्यावहा १. प्रेम एक जबर्दस्त प्रबल भावना है। विश्वव्याप्त, वैसी ही शक्तिमान । साथ बिस्तर पर रहना ही प्रेम नही है, लुई वैसा प्रेम हम दोनो मे नही है यदि वह आयेगा तो मेरे तुम्हारे लिए परस्पर स्वर्ग उपस्थित हो आएगा ।' ---'यामादिपिट' अलेक्जेण्डर क्युप्रिन, अनु० जैनेन्द्र कुमार, १६५८, दिल्ली पृ० स० २६५ ।

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