Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 301
________________ २६६ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन हुआ भी स्थायी रहता है । जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानी के पात्रो के जीवन मे मानवीय सम्बन्धो की एकता पर ही बल दिया गया हे । वस्तुत देश और कालगत अविभाज्यता द्वारा जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में मानव सम्बन्धो की परस्परता पर ही विशेषत बल दिया है। देश-विदेश की सीमा सम्बन्ध को सकीर्ण बना देती है किन्तु साहित्य की व्यापक भूमि पर भौगोलिक रेखाए मान्य नही हो सकती । विभाजन की रेखा द्वन्द्वमूलक है, क्योकि प्रत्येक राष्ट्र अपनी प्रगति और हित के लोभ मे दूसरे राष्ट्रो के स्वार्थ पर प्राघात करने मे सकोच नही करते, किन्तु परस्परता की भावना समस्त मानवता को एक ऐसे सूत्र मे बाध देती है, जिससे वे स्थूलत विलग होते हुए भी मूलत एक ही रहते है । ऐक्य-बोध ग्रह विसर्जन जैनेन्द्र की दृष्टि में व्यक्ति का जीवन राजनीति, धर्म, समाज, अर्थ-नीति प्रादि की समष्टि है । मानव जीवन सन्तुलन और समन्वय पर ही आधा रित है । उनके साहित्य मे व्यक्ति की घटनाए विविध परिप्रेक्षो में घटित होती है, तथापि उनके मूल मे आत्मोन्मुखता की प्रवृत्ति विशेषत दृष्टिगत होती है । विविधता के मूल में एकता की प्रतिष्ठापना ही जैनेन्द्र के साहित्य का प्रमुख आदर्श है । अनेकता ग्रहमूलक है, एकता ब्रह्ममूलक । ग्रह अर्थात् जीव ब्रह्म का ही प्रश है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'मैं' की चेतना जाग्रत होते ही ब्रह्म, जीव मे पार्थक्य प्रतीत होने लगता है । 'मैं' भाव जितना स्वकेन्द्रित होता है, उतना ही उसमे पर के निषेध का भाव उत्पन्न होता है । जैनेन्द्र का आदर्श 'स्व' पर के मध्य परस्परता का भाव उत्पन्न करना है । व्यष्टि का कर्तव्य समष्टि की ओर उन्मुख होना है । जैनेन्द्र प्रभाव को दमित करने के पक्ष में नही है । उनकी दृष्टि मे अहता यदि भगवत्ता में लीन हो जाय तो द्वन्द्व का प्रश्न ही नही उठता, क्योकि मूलत ग्रह के मूल मे स्थित श्रात्मता और भगवत्ता के मध्य कोई अन्तर नही है । यद्यपि जीव मे ईश्वर के गुरण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नही देते तथापि जैनेन्द्र के अनुसार यदि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के गुरण यदि उसके प्रग-प्रत्यग मे देखने की चेष्टा की जाय तो निराशा ही होगी । इसीलिए जैनेन्द्र स्पष्टत स्वीकार करते है कि यदि दिखने वाले जगत मे ईश्वर न दिखाई दे तो घबडाने की आवश्यकता नही है । शरीर जड है, अग-प्रत्यग भी as के सूचक है । भाव चेतनायुक्त है । अतएव सम्पूर्ण सत्य अश मे गर्भित तो होता है किन्तु विच्छेद द्वारा उसकी प्राप्ति नही हो सकती । सत्य की प्रतीति ही सभव होती है । ग्रह विसर्जन के द्वारा ही 'भगवत्भाव' अर्थात् समग्र शक्ति का

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