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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
रिक मनोविज्ञान का आश्रय लिया है। उनका मनोवैज्ञानिक विवेचन की विश्लेषरणात्मक प्रणाली पर आधारित नही है । उनका मनोवैज्ञानिक विवेचन अध्या त्ममूलक है । मनोविश्लेषणवादी मनोविज्ञानिक मन की शक्तियो को चेतनअचेतन आदि खण्डो में विभाजित करके समझने का प्रयास करते है । मनोविज्ञान द्वारा दमित विकारो का ही प्रकटीकरण होता है, किन्तु व्यक्ति की अत चेतना और बाह्य चेतना को आत्मोन्मुखता की ओर प्रेरित करने का प्रयास किया गया है । इस प्रकार प्रत और बाह्य प्रकृति एक ऐसी अविच्छिन्न कडी से सम्बद्ध है कि उसमे पार्थक्य का प्रश्न ही नही उठता । जैनेन्द्र का उद्देश्य मनोविश्लेषण द्वारा अत प्रकृति को उधार कर रख देना नही है वरन् प्रकृति के मूल मे सत्य की अभिव्यक्ति करना है । मनोविश्लेषणवादी विचारो के विरुद्ध उनकी मान्यता है कि -- बुद्धि के तीखे नखो से पात्र के मन की चीरफाड से कला की छीछालेदर की जा सकती है । ऐसी कला से तात्पर्य -- सिद्धि तो नही होती । अनवय-समनवय मे सार्थक है और विश्लेषण यदि सार्थक है तो तभी जब वह कुछ सश्लिष्ट भाव उत्पन्न करने में सम्भव हो । वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे विश्लेषण ही नही है, वरन् सत्य को अभिव्यक्त करने की उत्कट अभिलाषा भी है । सत्य सश्लिष्ट ही है ।
डा० देवराज उपाध्याय ने जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक विवेचन करते हुए उनके सश्लेषणात्मक रूप पर प्रकाश डाला है । उनकी दृष्टि मे जैनेन्द्र- किसी समस्या पर विचार करते समय उसे परिपात्रित स्थिति से तोडकर देखना नही चाहते, उसे जीवन के प्रवाह के रूप मे गतिमान देखते है।”
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जैनेन्द्र की दृष्टि में मानव प्रकृति के सदृश ही शरीरगत प्रभाव के हेतु रूपाकार की समग्रता भी अनिवार्य है सम्पूर्ण शरीर ही सौन्दर्यगत प्रकर्षरण को उत्पन्न करने में सक्षम हो सकता है । अग प्रत्यग को छिन भिन्न करके देखने से समस्त आकर्षण विनष्ट हो जाता है । 'विज्ञान' कहानी मे स्त्री की नाप-जोख करने से सौन्दर्य की अन्विति ही नही समाप्त होती, वरन् उसमे हार्दिकता भी विनष्ट हो जाती है । क्योकि विश्लेषण की प्रवृत्ति चाहे, वह किसी सन्दर्भ मे दृष्टिगत होती हो, आत्मगत हार्दिकता का बोध नही करा सकती । साहित्य का उद्देश्य प्रात्मिक सौन्दर्य सृष्टि का बोध कराना है ।
१ जैनेन्द्रकुमार 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', पृ० १८३ ।
२ To देवराज उपाध्याय 'जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक अध्ययन', प्र० स०, १६६८, दिल्ली, पृ० स० ४६ ।