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परिच्छेद–१०
जैनेन्द्र : जीवन का संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
दर्शन अखण्डता बोधक
जैनेन्द्र का साहित्य दार्शनिकता से अनुप्राणित है । उनकी साहित्यिक प्रक्रिया जीवन के सश्लिष्ट रूप का ही प्रतिनिधित्व करती है । 'दर्शन' का अर्थ ही है 'देखना' । किन्तु दार्शनिक दृष्टि तथा सामान्य दृष्टि मे अन्तर है। सामान्यरूप से व्यक्ति वस्तु या स्थिति के स्थूल और आशिक रूप को देखकर ही सन्तुष्ट हो जाता है। उसकी दृष्टि प्रत्यक्ष को ही देखती है, उसके पार देखने की क्षमता उसमे नही होती । किन्तु दार्शनिक दृष्टि ही नहीं, वरन् सूक्ष्म द्रष्टा भी होता है। उसकी दृष्टि सम्पूर्ण को देखती है । देश और काल की सीमा उसके लिए कोई महत्व नही रखती। वह कालबद्ध चेतना से ऊपर उठने के लिए प्रयत्नशील होता है। इतिहास का सत्य काल मे तद्गत होता है । अर्थशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान आदि विभिन्न शास्त्र जीवन के विशिष्ट पक्ष पर ही प्रकाश डालने मे समर्थ है । अपने क्षेत्र मे ही उनकी पूर्णता लक्षित हो सकती है। विविध शास्त्र मानो सम्पूर्ण शरीर के अगरूप है । अग का महत्व है, किन्तु एक-दूसरे का अस्तित्व सापेक्षता मे ही स्वीकार्य हो सकता है। मानव जीवन की अखण्डता का बोध कराने वाला एकमात्र दर्शन शास्त्र ही है । दर्शन शास्त्र का कार्य जीवन, जीवन के विशिष्ट पक्ष पर दृष्टिपात करना नहीं है, उसका लक्ष्य तो जीवन को समग्र रूप में देखना है । दार्शनिक मानव जीवन की अतल गहराई मे झाककर सत्य