Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 293
________________ २८८ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन उनकी भीतर की उस प्राणो की प्रेरणा पाते रहने के कारण वह कार्य बाहरी आकाक्षाओ से मलिन न होगा और इस तरह उलझन पैदा करने के बजाय उसको काटेगा। ___ 'मास्टर जी' कहानी के मूल मे एक गहरा प्रभाव हे जो नोकर के सान्निध्य की ओर आकर्षित होता हे । मास्टर की पत्नी का यह व्यवहार प्राकृतिक और मनोवैज्ञानिक ही है, उसे दोषी नही ठहराया जा सकता । स्त्री मे सदैव मातृत्व तथा त्रास पाने की प्रबल आकाक्षा होती है। किन्तु त्रास के बदले में मिलने वाले मान में वह अपमान का अनुभव करती है जिस प्रेम में 'चाह की धार' न हो उसे वह अपमान ही समझती है । उसके मन मे अपने ही प्रश्नो को लेकर एक आन्दोलन-सा उत्पन्न होता है और वह घर के उद्धत और जवाब देने वाले नौकर से झीक कर भी भीतर ही भीतर गर्व का अनुभव करती हे . इस नौकर को लेकर अह को तृप्ति मिलती है उसे कुछ अपनी सार्थकता अनुभव होती है। मास्टरानी नौकर के साथ घर छोडकर चली जाती है। पत्नी के वियोग मे मास्टर जी की पीडा-मर्म को झकझोर डालती है। उसका सात्विक प्रेम और विश्वास सत्य से अनभिज्ञ होता है । मास्टरानी दीवाली की रात को लौट आती है और अपने प्रति पति के प्रेम को देखकर उसका हृदय कचोट उठता है। वस्तुत उसकी क्रिया और प्रतिक्रिया दोनो ही स्वाभाविक है। निष्कर्षत यह अकाट्य सत्य है कि प्रेम मे अथवा प्रेम को लेकर पाप-पुण्य का भेद टिक नही पाता। सारे नैतिक मानदण्ड प्रेम के समक्ष अर्थहीन सिद्ध होते है। साहित्यादर्श सत्य की स्वीकृति __जैनेन्द्र के साहित्य का आदर्श सत्य की स्वीकृति मे ही पूर्ण होता है। जैनेन्द्र की दृष्टि में 'सत्य बडी चीज है । उससे बड़ा धर्म नही है। निष्पाप तो कोई हो नही सकता है। अपने साथ ईमानदारी बरतने से आगे आदमी का वश नही है।' इस प्रकार सत्य की स्वीकृति मे भीतरी कुत्सा और जुगुप्सा का भाव नही आ पाता । उनकी दृष्टि में सच मर्यादा में नही पाता। ऊपर से लादी हुई नैतिकता बाह्य रूप मे आदर्श तो प्रतीत होती है पर उसका अस्तित्व निर्जीवता के साथ ही सम्भव होता है और ऐसे नैतिकता प्राप्त समाज के अन्दर १ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० ८२ । २ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ४, पृ० १७ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'मुक्तिबोध', पृ० स० २८ ।

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