Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 291
________________ २८६ जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन सत्य नही है । उसके दल के लोग उसे नेता समझते थे किन्तु उसके मन के जहर को कोई नही जानता था, जो सच था। फिर असत् घटित होता है, वह क्यो? यही प्रश्न उसके अन्तस् को झकझोरता रहता है । जितेन कोठरी की नगी ईट की फर्श भुवनमोहिनी को सोने के लिए देता है, कम्बल का अोढन ओर बिछावन देता है । परन्तु वह यह नही जानता कि यह सब सच नही था, तभी तो उसके मन मे प्रश्न उठता है कि 'नही ही कैसे हो जाता है ।' व्यक्ति शैतान कैसे बन जाता है । सब के मूल मे कुछ और ही है, किसके कारण अतिशय प्रेम के प्रति भी बाह्य रूप मे घृणा दिखायी देती है। किन्तु घृणा सत्य नही है सत्य तो अपने मन की सच्चाई को प्रकट करने मे है । अन्तत जितेन की दृष्टि मे जो सत् है, वह समर्पण मे ही है । जेल मे रहकर ही वह अपनी अह से मुक्ति प्राप्त कर पाता है और अपनी सच्चाई को भुवनमोहनी के समक्ष प्रकट कर देता है। मोहिनी प्रारम्भ से ही सच्चाई से अवगत रहती है, इसीलिए उसके व्यवहार मे सहानुभूति ही झलकती है, तिरस्कार का भाव नही आ पाता। वह जानती है कि बुद्धि के बल से सच को दबाया नही जा सकता। दमन मे झूठ ही झलकता है । सत्य स्नेह है। उसकी दृष्टि मे स्नेह नाते खोजता है । इसका, उसका, सबका उसे सग चाहिए । वह अपने मे नही है, अन्य मे होकर ही है। सब सम्बन्ध अन्त मे बन्धन ही तो है । स्नेह उन बन्धनो को रचता और फैलाता है। इन्ही तारो से वह हमे यहा बाधता है कि एकाकी होकर हम सूख न जाय । किन्तु सत्य और स्नेह का योग बहुत कठिन है, पर सत्य वही है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे स्नेह व्यक्ति का जीवन है, तो सत्य उसका जीव्य है । व्यक्ति के भीतर का अपरूप और द्वन्द्व कदर्प बाहर प्रकट होने के लिए है । दमन मे सहजता नही है । जो सहजता मे है, सत्यता मे है, वह सावधानता और चतुरता मे नही है। परस्पर की उपलब्धि नही हो पाती, बद्धि के प्रागल्भ से । हृदय के अनुदान से वह सहज होती है। ___ 'जयवर्धन मे भी सत्य तल मे ही रहता है, अभिव्यक्ति मे नही आ पाता। जय का जीवन जो राजनीति मे दृष्टिगत होता है, वही सत्य नही है, सत्य उससे परे है । इला जय के सम्बन्ध मे कहती है-'लोग राजनीति में उन्हे जाने वह जानना नही है। वह सतह का है और बाहरी है..।' इला के अन्तस् की पीडा बाह्य रूप मे प्रकट नही हो पाती । वह अपने जीवन मे जय को कर्तव्य की ओर उन्मुख होते हुए ही देखती है किन्तु उसकी व्यथा उसके हर शब्द मे १ जैनेन्द्र कुमार विवर्त'। २ जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', प० स० १५७ ।

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