________________
२६२
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
होता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे भेद अथवा द्वैत, बाह्य और इन्द्रियगत है, किन्तु इन्द्रिया मार्ग है, गन्तव्य अथवा मजिल नही है । मार्ग की द्वैतता सत्य नही है, सत्य तो मजिल है, जहा पहुचना है । द्वैत यथार्थ और जागतिक सत्य होते हुए भी सूक्ष्म सत्य नही है। सार्वभौम दृष्टि से अखण्डता ही एकमात्र सत्य है । जैनेन्द्र के साहित्य का उद्देश्य एक के निषेध द्वारा अन्य को स्वीकार करना नही है। उनके साहित्य मे एक और अनेक के पार्थक्य को मिटाते हुए परस्परता पर भी बल दिया गया है । अद्वैत तथा ऐवय की प्राप्ति का एकमात्र आधार प्रेम है । प्रेम अन्त प्रसूत तथ्य है, अतएव ऐक्यानुभूति भी प्रात्मप्रसूत ही है। अान्तरिक एकता का स्वरूप सहज और स्थायी होता है। ऊपर से लादी हुई एकता मे परस्परता और आत्मता की सहजाभिव्यक्ति सम्भव नही होती। नाना मतवाद विवादमूलक ही है, किन्तु सत्य वाद-विवाद से ऊपर ऐक्य मे ही समाविष्ट है।
अद्वैत चर्चा का विषय नही
जैनेन्द्र की दृष्टि मे द्वैत मे से ही ज्ञान-विज्ञान की प्रगति होती है । सभ्यता भेदमूलक है, सत्य अभेद-मूलक । उनकी दृष्टि मे जीवन की सारी भाषा अर्थात् द्वन्द्व द्वैत मे ही सम्भव है । जैनेन्द्र के अनुसार अद्वैत चर्चा का विषय नही है। अद्वैत के तट पर बुद्धि को तो पहुचा ही नही सकते । इसलिए वे अद्वैत को उस भूमिका के तौर पर रहने देना चाहते है, जिस पर सब सम्भव बनता है। अद्वैत गर्भित ही है। उनके विचार मे जिस प्रकार जिस धरती पर हम बैठे है, वह चर्चा का विषय नही बनती। उसी प्रकार अद्वैत मूलाधार है, वह वाद-विवाद का विषय नही बनती।' उनकी दृष्टि मे अद्वैत पर पहुचना नही होता क्योकि जीवन अनन्त यात्रा है । जानने के प्रयत्न मे व्यक्ति का अभिमत प्रमुख होता है, सत्य गौरण । सत्य सश्लिष्ट है, अतएव जैनेन्द्र जानने के सश्लिष्टरूप की सत्य मे गुजाइश नही मानते । उनकी दृष्टि से सत्य सश्लिष्ट और अभेद है, उसे जाना भी नही जा सकता।
द्वैत से अद्वैत की ओर
जीवन का सत्य अखण्ड है, किन्तु व्यावहारिक जीवन द्वैताश्रित है। व्यावहारिकता, प्रेम, अनुकम्पा यानी अहिसामूलक है । जीवन की सक्रियता प्रेम, दया, प्यार, सहानुभूति आदि के सन्दर्भ मे ही घटित होती है । जैनेन्द्र की दृष्टि
१ जनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।