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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
इस प्रकार उपरोक्त कहानी मे ढूढने पर भी अश्लीलता की झलक नही मिलती । जो कुछ भी है, सच्चाई मे से ही होता है । जैनेन्द्र के अनुसार अश्लीलता शरीर के स्पर्श मे न होकर व्यक्ति की भावना में निहित होती है ।
जैनेन्द्र की दृष्टि मे मन का कुछ ही भाग हमारी समझी जाने वाली इच्छाओ और वासनाओ से जुडा रहता है । अधिक भाग तो उसका पीछे ग्रात्मा से कहा जा सकता है । इस प्रकार अन्तत अन्तर की सत्यता और पीडा से ही उद्भूत होता है ।
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अन्तर्भूत पीडा
जैनेन्द्र के साहित्य का परम सत्य उनके पात्रो के अन्त में निहित पीडा अथवा व्यथा ही है । उनकी समस्त चेष्टाओ के मूल मे उनकी अन्तशचेतना का
वेग ही समाहित है, जो हमे जैनेन्द्र के साहित्य की अश्लीलता प्रतीत होती है, वह पीडा की पूजी से सहज ही पावन हो उठती है । जैनेन्द्र के साहित्य मे पीडा की गहनता ही तो हे जो घनीभूत होती हुई जीवन को स्निग्धता और प्रभविष्णुता प्रदान करती हे । बाह्य रूप मे दृष्टिगत वासना तो प्राणिक ही है, पूर्णता तो ग्रन्तस् की व्यथा के योग से ही प्राप्त होती है । व्यथा, विरह की ही उपलब्धि है । जैनेन्द्र के साहित्य में प्रेम प्रधान है। प्रेम प्राप्ति में न होकर अप्राप्ति में ही दृष्टिगत होता है । इसलिए जैनेन्द्र स्वीकार करते है कि 'हर श्रादमी उसका है, जिसको वह कभी प्राप्त नही कर पाता । यह प्रेम सघन होतेहोते अपने आधार प्रधेय को प्रतिक्रमिक कर जाता है अर्थात् वैयक्तिक होकर ही निर्वैयक्तिक बना रहता है ।' जैनेन्द्र के साहित्य में 'जीवन प्रारण का मूल गुरण सुख और शान्ति नही है । वह तो बेचैनी और व्यथा है ।" जैनेन्द्र की रचनाओ मे यत्र-तत्र जब कभी त्रास देने का भाव दृष्टिगत होता है, तो वह केवल देखने मे ही आता है । एक ओर से त्रास और दूसरी ओर से सहनशीलता मे विरोध और दूरी न होकर और भी सघनता होती है । जैनेन्द्र के अनुसार - 'जो जैसा दीखता है वैसा नही भी है यानी कष्ट बिना किसी को इष्ट नही है, जो इस प्रकार कष्ट कर व्यवहार करता है वह गहरी बेबसी के कारण । वह व्यवहार उचित है, सहन का यह मतलब नही । आशय इतना ही है कि उस व्यवहार पर ही क्षमा प्रौर करुणा की वृत्ति ही सम्भव नही है, स्नेह भी सम्भव है और वह उचित भी है ।" उपरोक्त विचारो की यथातथ्य हमे 'विवर्त' में प्राप्त होती
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० स० ५४२ । २. जैनेन्द्र कुमार 'काम, प्रेम' और परिवार, पृ० ८८ ।