Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 280
________________ जैनेन्द्र और सत्य २७५ है, किन्तु अज्ञात की ओर से आने वाली चुनौती का सामना करने के लिए व्यक्ति प्रयत्नशील ही हो सकता है, पूर्णत. समर्थ नही हो सकता, क्योकि जिज्ञासा समाप्त हो जाय तो जीवन का प्रवाह ही समाप्त हो जायगा। जैनेन्द्र के अनुसार सत्य की खोज मे डूबकर ही व्यक्ति कतार्थ होता है । अहता के विगलन अथवा सत्य के समर्पण द्वारा ही परम सत्य की उपलब्धि का आनन्द प्राप्त हो सकता है। जैनेन्द्र की रचनाओ के पात्र सदैव जीवन मे कर्मरत रहते हुए भी ईश्वरोन्मुख होने के लिए प्रयत्नशील रहते है। विनम्रता, अहशून्यता, और प्रेम ही सत्य की प्राप्ति के विविध सोपान है। जीवन सतत् यात्रा है। जैनेन्द्र की दष्टि मे जीवन की सार्थकता चलने मे है, रुकने मे नही। सत्य सम्बन्धी उपरोक्त विवेचन के आधार पर पर हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हे कि सत्य का सूक्ष्म रूप शाश्वत है । वह व्यक्ति की पहुच से परे है, अतएव वह चर्चा का विषय भी नही बन सकता। वह केवल अनुभूति का ही विषय हो सकता है। एकमात्र सत्य वही ईश्वर है और सब उसी के होने से सभव है।' प्रश्न IT है कि जब सूक्ष्म सत्य व्यक्ति की चर्चा का विषय नही बन ममता तथा तब व्यक्ति के जीवन मे कौन-सा ऐसा सत्य है, जिसे साहित्यकार साहित्य के माध्यम से स्वीकार करता है । साहित्य का वह कौन-सा सत्य हे जो जीवन का सहजता प्रदान करने में समर्थ होता है। जैनेन्म के अनुसार जीवन के विषय परिप्रेक्षो मे सत्य की स्वीकृति भी साहित्य का इष्ट है । सुक्ष्म सत्य से पर व्यावहारिक जीवन मे सत्य की जो स्थिति स्वीकार की गयी है, उसकी स्वीकृति में ही जीवन की सहजता सम्भव है। जैनेन्द्र के साहित्य में व्यावहारिक सत्य को किसी सीमित क्षेत्र मे ही नही स्वीकार किया गया है , वरन् धर्म, समाज, राजनीति आदि मे भी निहित सत्य की अभिव्यक्ति का प्रयास किया गया है। 'व्यवसाय का सत्य', 'मानव का सत्य' आदि सज्ञामो से जैनेन्द्र ने सत्य सम्बन्धी अपने विचारो की अभिव्यजना की है। सत्य का स्वरूप काल से तब्गत नहीं जैनेन्द्र के माहित्य में सत्य की स्थिति जानने से पूर्व उसकी विशिष्टता को जानना अनिवार्य है। जैनेन्द्र के अनुसार सत्य को काल की दृष्टि से देखना अधिक विश्वमनीय नही है। उनकी दष्टि से विभिन्न युगो के साहित्य मे दृष्टिगत होने वाले रास्य की परख काल के विभाजन के आधार पर करना उचित नहीं है । प्रायः यह देखा जाता है कि एक ही काल के लेखकों के सत्य सम्बन्धी १. जैनेन्द्र में साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।

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