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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
दृष्टिकोण मे अन्तर होता है । यथा प्रेमचन्द और जयशकर 'प्रसाद' समकालीन होते हुए भी दृष्टि-भेद के कारण काल की सापेक्षता मे रखकर विवेचित नही किए जा सकते । जैनेन्द्र के अनुसार सत्य का स्वरूप लेखक की या व्यक्ति की आत्म-चेतन पर निर्भर होता है, न कि काल पर । अतएव साहित्य मे प्राप्त होने वाली सत्यता मे जो अन्तर दृष्टिगत होता है, वह लेखक की दृष्टि-भेद का ही सूचक है । सत्य कालातीत होकर ही वह स्थायित्व ग्रहण करता है । "
जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे सत्य का जो स्वरूप स्वीकार किया है, वह सम-सामयिकता की माग से ऊपर है । उनके चिन्तन का परिचय बाह्य परिवेश से अधिक आन्तरिक द्वन्द्व है । यही कारण है कि उन्होने अन्तस् चेतना के आधार पर ही सत्य का निरूपण किया है । सत्य का स्थूलरूप निर्गुण न होते हुए भी बाह्य स्थितियो मे लक्षित नही होता, वरन् अन्तर्भूत होता है । इसीलिए साहित्य मे जीवन के सत्य की अभिव्यक्ति के लिए अन्तर्दृष्टि अनिवार्य है ।
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सत्य शिव सुन्दरम्
साहित्यक - सत्य और दार्शनिक सत्य की अपनी सीमा है । दार्शनिक दृष्टि से सत्य को जिस रूप मे ग्रहरण किया जाता है, उसे ठीक उसी रूप मे साहित्य मे नही स्वीकार किया जा सकता । दर्शन का सत्य चिन्तन - प्रधान होता है । उसमे वैचारिक प्रमुख होती है, किन्तु साहित्यिक सत्य मे विचार से अधिक भाव और व्यावहारिकता का समावेश होता है । साहित्य मे कोरा सत्य केवल बौद्धिक तर्क-जाल फैलाने मे ही सहायक होता है । उसमे व्यक्ति के जीवन मे आत्मसात् होने की क्षमता नही होती । साहित्य का 'सत्य शिन और सुन्दरम्' के दो तटो के पार की स्थिति है, किन्तु पार जाने के लिए तट का निषेध भी नही हो सकता । मानो शिव और सुन्दर के तटो का स्पर्श करती हुई साहित्य-धारा सत्य के सागर मे समा जाती है । सुन्दरता और शिवत्व सत्य के पूरक है । साहित्यकार का लक्ष्य अपनी रचनाओ के द्वारा सत्योन्मुख होना ही है | जैनेन्द्र के अनुसार सत्य की शोध, सत्य की चर्या और सत्य की पूजा के लिए ही लेखन कार्य होना चाहिए। उनकी दृष्टि मे ' शिव और सुन्दरम्' सत्य के दो पहलू है, परन्तु अपने-आप मे सिमटते ही दोनो मे अनबन हो रहती है । साहित्य अथवा कला का प्रधान गुग्ण सुन्दरता है । सत्य का सुन्दर रूप ही साहित्य मे ग्राह्य हो सकता है । प्रयोजनीयता साहित्य का गोरण पक्ष है ।
१ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
२. जैनेन्द्रकुमार 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', पृ० स० २८३ ।