Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 285
________________ २८० जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन लुप्त ही बना रह गया है। इस स्थिति मे से ही एक दिन काम को अकाम हो जाना हे । वस्तुत कामेन्द्रियो के मार्ग से आत्मोन्मुखता की प्राप्ति सम्भव हो सकती है। सत्य उत्सर्ग में जैनेन्द्र के अनुसार भोग अथवा सम्भोग के मूल मे जो दोष है, वह एक का एक से सम्बन्ध होने के कारण ही सम्भव है, यदि एक का सम्बन्ध एक तक सीमित न होकर सर्व मे प्राप्त हो जाय तो उसमे दायित्व का भाव शिथिल पड जायगा । दायित्व मे ही काम की तीव्रता जाग्रत होती है । किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे जब एक का एक से अनेक के साथ अभिन्नता का सम्बन्ध हो, तब फिर एक के साथ सम्बन्ध की व्यापकता नही रह जाती। उनकी दृष्टि में अपने को देने और अन्य को पाने मे भोग तो बीज रूप मे रहेगा ही। उसकी सीमितता काम की न्यूनता है, क्योकि वहा एक का एक से सम्बन्ध ही काम प्रेम की अभिव्यक्ति का रूप माना जा सकता है । परन्तु उनकी दृष्टि मे काम ही प्रेम मे बाधा है । प्रेम उत्तरोत्तर अतीन्द्रिय होने के लिए है। जैनेन्द्र के साहित्य मे विवाह मे प्रेम की स्वीकृति की सार्थकता दायित्व को समाप्त करने में ही है। विवाह के द्वारा व्यक्ति यदि एक से बध जाय अथवा ए को अपने 'स्व' से इतना बाध ले कि उसे सर्व तक फैलने न दे तो वह विवाह जकडबन्द हो जायगा । जैनेन्द्र के अनुसार जीवन का सत्य स्वार्थ मे न होकर उत्सर्ग में है। उनकी दृष्टि मे भोग मे 'स्व' की किरकिराहट बनी ही रहती है। प्रासू बहाने मे जितना स्व का लाभ होता है, उतना भोग से नही । भोग मे योग का भाव विसर्जन अथवा प्रात्मोत्सर्ग द्वारा ही सम्भव होता है। जब प्रिय को हम अपनी कामना से मुक्त करते है, तब एक आन्तरिक उपलब्धि होती है। वही सत्य है। जैनेन्द्र ने काम और प्रेम की समस्या को किसी विवशतावश स्वीकार न करके अपने अन्तस् की माग के कारण स्वीकार किया है । उमकी दृष्टि मे दुख में सुख गभित है। जिस प्रकार हिसा के मूल मे अहिसा का भाव अन्तमूर्त रहता है। काम के सूक्ष्म बिन्दु मे दो व्यक्ति परस्परता मे स्वय को खो देते है। उनकी दृष्टि मे जीवित रहते हुए भी जो मृत्यु का सुख दे सके वही परम सिद्ध है। जो दुख का क्षरण है, वही सुख का क्षरण है । 'अपने मरण' अर्थात् स्वत्व के न होने के भाव से बडा कोई भाव नही है। उस स्थिति मे द्वैत का भाव विलीन १ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', पृ० स० ३२४ । २ साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार।

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