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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
बनी रहेगी।
ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टि
__ससार मे यदि कुछ नित्य, अनन्त और निर्विकार है तो वह ईश्वर अथवा ब्रह्म ही है। पाश्चात्य दार्शनिको की ब्रह्म सम्बन्धी विविध मान्यताए प्रचलित हे । किन्तु सबकी दृष्टि मे परम सत्ता एक ही हे अनेक नही है। धर्म, सभ्यता
और सरकृति के वैभिन्य के कारण ईश्वर के अनेक नाम और रूप है, किन्तु सब कुछ एक को सूचित करते है। चाहे उसे ईश्वर कहे या ब्रह्म, गॉड कहे या खुदा । इस्लाम धर्म अनेक देवी-देवताओ का कट्टर विरोधी है। आस्तिक विचारको के अतिरिक्त नास्तिक अनीश्वरवादी होते हुए भी यह मानते है कि एक परम सत्य अवश्य है और उस सत्य को जानने की जिज्ञासा हममे सदैव बनी रहती है । आधुनिक वैज्ञानिको मे भी किसी अदृश्य रहस्य के उद्घाटन की ही प्रबल आकाक्षा है, जिससे वे तल तक पहुंच कर यह देखना चाहते है कि वहा क्या है ? ग्रास्तिक के लिए सत्य सहज स्वीकार्य है। किन्तु वैज्ञानिक उसे नकार कर भी अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करने की स्थिति मे ही पहुचना चाहता है, किन्तू उगकी जिज्ञासा का कही अन्त नही है। चाद तक पहचने के प्रयास में उसकी यही इन्छा छिपी हुई है कि देखे चाद मे क्या है ?
वस्तुत दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनो ही सत्य की खोज मे है। एक मे जिज्ञासा और अनुभूति है, दूसरे मे बुद्धि और तर्क द्वारा प्रमाणित करने का प्रयत्न है। वैज्ञानिक बुद्धि और तर्क को सामने उपस्थित कर देना चाहता है, किन्तु दार्शनिक मबुद्धि द्वारा सत्य के स्वरूप और उसके अस्तित्व का अनुभव करता है । प्रतएव दर्शन और विज्ञान का लक्ष्य सत्य की प्राप्ति होते हुए मार्ग भिन्न है। किन्तु आज समय की माग यही है कि दोनो के मार्ग की गहरी खाई पट जाये । अर्थात् उन दोनो मे एक-दूसरे को मिथ्या और निरर्थक सिद्ध करने की भावना न हो, वरन् कर्म की दृढता और उसमे विश्वास की प्रगाढता हो ।
साहित्य वह भूमि है, जिस पर समस्त विभेद अथवा पार्थक्य को ऐक्य की दिशा का ऐमा निर्देश प्राप्त हो सकता है, जो व्यावहारिक जीवन के हेतु उपयुक्त हो। साहित्य जीवन की कला है। जैनेन्द्र प्रास्थावान दार्शनिक है। उन्होने वैज्ञानिक विवेक मम्मत बुद्धि को स्वीकार करते हुए भी परमेश्वर के सन्दर्भ में आस्था का ही प्राचल पकडा है। अपनी हार्दिकता को वे किसी भी पल छोड ही नही पाते। विश्वास को छूटता हुम्मा देखकर सम्भवत वे अपने
१ जैनेन्द्र कुमार साहित्य का श्रेय और प्रेय', दिल्ली, १९५३, पृ० १०६ ।