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परिच्छेद-७
जैनेन्द्र और व्यक्ति
जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति
जैनेन्द्र-साहित्य मानव-जीवन और व्यक्ति की समस्याओ का अमित भडार है। मानव विराट् अखण्ड ब्रह्म का अश है । अह ब्रह्म का अश रूप है । अह का साकार प्रतिनिधित्व, व्यक्ति के द्वारा ही होता है, क्योकि अह भावना है, उसका प्राधेय व्यक्ति ही है । ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, किन्तु ईश्वर का अस्तित्व भी जीव के द्वारा ही चरितार्थ होता है । व्यक्ति है, अतएव उसमे अपने अखण्ड रूप को जानने की जिज्ञासा भी अनिवार्य है । व्यक्ति अपूर्ण है, ब्रह्म पूर्ण और अखण्ड है । व्यक्ति को केन्द्र मे स्थित करके ही जीवन की बहुमुखी धारा विकसित होती है । जैनेन्द्र का सम्पूर्ण साहित्य व्यक्ति की व्यथा से आपूर्ण है । व्यक्ति की आत्मा मे झाककर उसके आत्मस्थ सत्यो का उद्घाटन तथा अन्त बहिर्द्वन्द्व से उत्पन्न विषम परिस्थितियो को चित्रित करना ही उन्हे श्रेयकर रहा है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति ही वह आधार-बिन्दु है, जिसपर समस्त जीवन की भीति प्रारूढ है । जो समष्टि मे है, वही व्यष्टि मे है । अतएव जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यष्टि द्वारा समष्टि की अर्थात् समस्त मानव जाति के सान्निध्य की प्राप्ति का प्रयास दृष्टिगत होता है। ___जैनेन्द्र व्यक्तिवादी साहित्यकार है। जैनेन्द्र से पूर्व प्रेमचन्द के उपन्यास समाज की समस्याओं को ही आधार बनाकर लिखे गए है । व्यक्ति और व्यक्ति-जीवन के द्वन्द्वो की ओर उन्होने विशेष ध्यान नही दिया। उनके उपन्यासो मे व्यक्ति की अपेक्षा घटना का प्राधान्य था । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद मनो