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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन साहित्यिक जीवन मे नवीनता का सचार करती है । कालान्तर मे वही प्रवृत्तिया प्राचीन और परम्परागत समझी जाने लगती है। काल की अनन्तता मे ही परम्परा और प्रयोग का द्वैत समाया हुआ है । मानव जीवन और काल सतत् परिवर्तनशील है । आज जो है, वह कल नही रहेगा । कल होने वाला परिवर्तन
आकस्मिक न होकर स्वाभाविक ही होता है। यदि प्रगति एक स्थान पर जडवत हो जाय, आगे का मार्ग अवरुद्ध हो जाय तो वह प्रगति, प्रगति न होकर अवनति ही सिद्ध होगी। ___ मुशी प्रेमचन्द के उपन्यास साहित्य जगत् मे अपना गोरवपूर्ण स्थान रखते है, किन्तु प्रेमचन्द की महानता के साथ काल की गति जडबद्ध नही हो सकती। यदि प्रेमचन्द के उपन्यासो को ही उपन्यास-साहित्य का चर्मोत्कर्ष मानकर भावी उपन्यास-सृजन के हेतु उन्हे ही कसौटी बनाया जाय तो किचित् असगति ही प्रतीत होगी। यद्यपि यह सत्य है कि प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासो और कहानियो मे सम-सामयिकता से ऊपर उठकर मानव जीवन के सार्वभौम रूप की अभिव्यक्ति की है तथापि प्रेमचन्द को ही साहित्य आदर्श की आधारशिला मानने से भावी साहित्य मे दृष्टिगत परिवर्तन निरर्थक सिद्ध होगा । वस्तुत काल की गति किसी केन्द्र से बद्ध नही है, वरन् सतत् प्रवाहशील है । किन्तु परिवर्तन अनिवार्य और स्वाभाविक होते हुए भी कभी भी परम्परा से पूर्णत विच्छिन्न नही होता। काल की अनन्तता के मूल मे एक शाश्वत सत्य सदैव विद्यमान रहता है, जिससे परपरा और परिवर्तन के बीच कोई एक रेखा नही खीची जा सकती। सत्य की सर्वव्याप्ति के कारण ही काल की अन्विति बनी रहती है । वस्तुत नवीनता, प्राचीनता अथवा परम्परा के निषेध का प्रतिफल नही है। परम्परा की भूमि पर ही नवजागरण की प्रतिक्रिया सम्भव होती है । जैनेन्द्र परम्परा से प्रगति का विरोध नही मानते । इसीलिए वे प्रगति मे प्रेम रखते हुए भी परम्परा के प्रति आदर रखते है। उन्हे विस्मय है उन व्यक्तियो पर जो परम्परा के विच्छेद से प्रगति का प्रारम्भ चाहते है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे परम्परा से ही जो पुष्पित और फलित नही होती, वह प्रगति नही है । जैनेन्द्र के अनुसार 'परम्परा को वह नहीं जानता, नही मानता जो उसे अतीत से जडित और भावी से विहीन करता है । वस्तुत परम्परा का वह प्रेम जो उस प्रवाह को रोकता और बाधता है, गति मे अनर्गलता का हठ पैदा करता है। वह गति निरकुश और भोगवादी होती है। साहित्य की विषयवस्तु और उसके
१ जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत' प्र० स० १९६२, पृ० स० ४-५ । २ जैनेन्द्रकुमार 'इतस्तत', पृ० स० ५।