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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
से घबडाया हुआ व्यक्ति एकान्त, नीरव स्थल पर आत्मचिन्तन द्वारा विश्रान्ति प्राप्त करने की चेष्टा करता है । जैनेन्द्र का साहित्य भी मानो आत्मचिन्तन और आत्माभिव्यक्ति का काल है । जैनेन्द्र के साहित्य मे समष्टि से व्यष्टि को पृथक करके पहचानने की चेष्टा की गयी है तथा पुन समष्टि के पति समर्पित होने का प्रयास दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र की साहित्यिक - सरचना साहित्य - जगत मे एक नवीन चेतना का सचार करती है । जैनेन्द्र के साहित्य में नवीनता की चर्चा करते हुए यह भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि उन्होने सप्रयास प्रेमचन्द की साहित्यिक - दिशा मे नवीनता लाने की चेष्टा की है और व्यवस्थित तथा सुधरे हुए व्यक्ति चिन्तन में उथल-पुथल करने का प्रयास किया है । किन्तु उपरोक्त दृष्टिकोण जैनेन्द्र के साहित्य की सच्चाई को नही व्यक्त करता । जैनेन्द्र ने विचार और तर्क के आधार पर पारम्परित विचारधारा के मार्ग को अवरुद्ध नही किया है, वरन् भाव और हार्दिकता के सहारे मानव जीवन की गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया है । जैनेन्द्र के साहित्य का मुख्य स्वर- -मानव जीवन की सहजता और सत्यता की अभिव्यक्ति मे ही मुखरित हुआ है । नित्यप्रति के जीवन मे व्यस्त व्यक्ति प्रसतुष्ट, उद्विग्न और उत्पीडित है, किन्तु वह नही जानता कि उसके असन्तोष का उत्स कहा गर्भित है ? वह परिस्थिति के समक्ष विवश - सा बना रहता है । पारस्परिक तनाव, विद्रोह और विक्षोभ के कारण वह व्यक्ति, व्यक्ति के मध्य एक गहरी खाई उत्पन्न कर देता है, किन्तु यह जानने की चेष्टा नही करता कि ऐसा क्यो है ? क्यो उसकी निजता अथवा 'स्व' 'पर' से विमुख होकर द्वेष और घृणा का कारण बनती है ? जैनेन्द्र ने कस्तूरी मृग के सदृश भ्रमित मानव को स्वकेन्द्रित ग्रहता बोध कराया, जो समस्त द्वन्द्वो का मूलाधार बनी हुई है ।
व्यक्ति और अन्तश्चेतना
जैनेन्द्र के सम्बन्ध मे सामान्यत यह धारणा प्रचलित है कि उनका साहित्य व्यक्ति प्रधान है, उसमे समाज के सघर्षों और समस्याओ का निषेध किया गया है । मानव जीवन में होने वाली विविध सामाजिक समस्याओ से जैनेन्द्र के साहित्य
विमुखता दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र के साहित्य को स्वरति का पोषक माना जाता है । यह सत्य है कि जैनेन्द्र ने बाह्य परिवेश से अधिक आन्तरिक द्वन्द्व को उभारने और उसके कारणो से निदान पाने का प्रयास प्रस्तुत किया है । जैनेन्द्र के अनुसार यदि बाह्य द्वन्द्वका कारण ग्राह्य हो सके तो बाह्य स्थिति से उलझने की कोई आवश्यकता नही है । सच्चाई तल में निहित होती है, सतह पर तल में सगा - हित कुर ही प्रस्फुटित होते हुए देखे जाते है । जैनेन्द्र से पूर्व के उपन्यासकार