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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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बाह्य स्थितियो से इतने उलझे हुए थे कि अन्तर्भूत सत्य को जानने का उन्हे अवसर ही नही मिला । जैनेन्द्र के साहित्य मे अन्तश्चेतना की अभिव्यक्ति के प्रयास को देखकर उन्हे व्यक्तिवादी नही माना जा सकता । बाद मे आग्रह का भाव समाहित होता है । परिच्छेद छ मे जैनेन्द्र के व्यक्ति सम्बन्धी विचारो पर विचार करते हुए जैनेन्द्र को व्यक्तिवादी माना गया है, किन्तु वहा भी व्यक्तिवाद का तात्पर्य केवल व्यक्ति के हित को प्रमुखता प्रदान करना था । व्यक्ति के हित मे अनन्त व्यक्ति मानव की निजता स्वत ही समाहित हो जाती है । जैनेन्द्र का लक्ष्य धर्म, अर्थ और राजनीति के मध्य व्यक्ति के हित को प्रमुखता देना रहा है । किन्तु प्रस्तुत परिच्छेद मे जैनेन्द्र की व्यक्ति प्रधान दृष्टि उनकी आत्मनिष्ठा की ओर इंगित करती है । इसी प्रात्मनिष्ठा के आधार पर आलोचको ने उनके साहित्य मे सामाजिकता के प्रभाव की ओर संकेत किया है । इस सम्बन्ध मे जैनेन्द्र का विचार है -- ' अन्तश्चेतना का स्रोत अन्तर्मुखी है, किन्तु उसकी अभिमुखता कभी भीतर होती ही नही । वह सदा ही इतर के सम्बन्ध मे होती है । वह बहिर्मुख होने, लोकाभिमुख होने को बाध्य है । व्यक्तिवादिता का प्रश्न प्रतिक्रिया है, जो चेतना लोकाभिमुख है, उसमे परामुखता स्वीकार करे तब वह व्यक्तिवादिता बनती है अर्थात इन्द्रिया तो बहिर्मुख होती ही है । चेतना का कार्य दोहरा है -- बाह्य का स्पर्श और उसका सवहन् । वस्तुत सारा जीवन अग्रोन्मुखी है । यदि ऐसा नही है तो यही समझना चाहिए कि कही अवरोध आ गया है और उस प्रवरोध का प्रश्न चिह्न प्रवाह को खोलने से है ।' वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे आत्मप्रधानता होते हुए भी 'पर' ar frषेध नही किया गया है । स्त्री-पुरुष सम्बन्धो मे जो स्वरतिमूलक भाव दृष्टिगत होता है, वह भी 'पर' की स्वीकृति मे ही हो सका है। जैनेन्द्र इस तथ्य का पूर्णत खण्डन करते है कि उन्होने सामाजिकता से परे केवल आत्मोन्मुखता को ही प्रश्रय दिया है । पारम्परिक विचारो से उनमे जो मुख्य भिन्नता
त होती है, वह है अन्तस् की स्वीकृति । व्यक्ति भेद के कारण अभिव्यक्ति मे भी अन्तर आना स्वाभाविक ही है । जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त अन्तश्चेतना आत्मगत सत्यता पर ही अवलम्बित है । जैनेन्द्र के अनुसार यदि बाह्य जीवन का बोध अन्तर्मुखी होता हुआ पुन बाह्योन्मुख न होता तो व्यक्ति जीवन का समाज मे कोई महत्व न रहता । 'स्व' 'पर' से विच्छिन्न होकर अपनी निजता अर्थात् हता को ही पुष्ट करता है । किन्तु जैनेन्द्र की मान्यता है कि बाह्य दृश्य या स्थिति आत्मा के स्पर्श से अधिकाधिक महिमामयी बन जाती है । स्व
१. जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।