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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पालना चाहते है तो वह दूसरे अथवा दूसरे के प्रयोजन के टक्कर मे आ जाता है।" इस प्रकार साहित्य मे राग-द्वेष की भावना पनपने लगती है। किन्तु साहित्य का लक्ष्य प्रेम की पूजी को धनीभूत करना है । जैनेन्द्र का साहित्य स्थूल से सूक्ष्म की ओर एक प्रतिक्रिया है । आत्मनिष्ठ सत्य, उनके सम्पूर्ण साहित्य मे यही स्वर मुख्य रूप से मुखरित हुआ है । वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य का सत्य उसकी उपयोगिता अथवा समाज के सुधार में निहित होकर व्यक्ति की आत्मा मे अन्तर्भूत है। जैनेन्द्र ने विषय के क्षेत्र मे ही नही, वरन् टेकनीक के क्षेत्र मे भी साहित्य-जगत मे भी सहजता का सूत्रपात किया है।
साहित्य और समाज
जैनेन्द्र की दृष्टि मे लेखक का कर्तव्य समाज के एक रुख के साथ चलना नही है। समाज के साथ चलने वाला लेखक समाज की मर्यादा के दबाव मे जीवन की सत्यता का उद्घाटन करने में असमर्थ होता है। दबाव में आकर साहित्य-सृजन की प्रक्रिया सत्य-असत्य का निर्णय करने में असमर्थ होती है। इसीलिए जैनेन्द्र समाज के रुख से अधिक उसके रोग की ओर देखना अधिक उपयुक्त समझते है। जैनेन्द्र समाज की परम्परागत लकीर पीटने मे स्वय को असमर्थ पाते है। उनकी दृष्टि मे यह आवश्यक नही कि प्रत्येक रचना सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत हो ही। किन्तु जैनेन्द्र समाज की स्वीकृति की चिन्ता में अपने
आदर्शों से विचलित नही होते । जिस समय जैनेन्द्र ने साहित्य-जगत मे पदार्पण किया, उसी समय उन्हे लेकर बहुत टीका-टिप्पणी हुई। कितु उन्होने अपनी
आलोचना से घबडाकर समाज के समक्ष घुटने टेकना आवश्यक नही समझा। यही कारण है कि वे अन्तत अपने वैचारिक सत्य का अनुगमन करते रहे है। वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार—'साहित्य पथ-निर्देश यदि करता है तो इरादे से नही पथ प्रकाशित करता है। साहित्य उस स्रोत का उद्घाटन करता है, जिसे प्रकाश का मूल कहना चाहिए। अगर उससे जीवन के सत्य को स्पष्टता प्राप्त होती है और जगत की पहेली भी स्पष्ट-सी लगती है तो यह परिणाम कहा से अनायास प्राप्त होते है, साहित्य का अपना अभिप्रेत नही है, वह तो मात्र सत्य शोध या आत्मावगाहन है ।२
जैनेन्द्र समाज के साथ-साथ चलने के पक्ष मे नही है । इसीलिए उनके साहित्य मे वर्तमान से ऊपर उठने की चेष्टा लक्षित होती है । समय से बध कर साहित्य
१ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानियाँ', भाग ६, पृ० स० १३ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' ।