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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
होगा । इस प्रकार किसी समस्या की प्रतिक्रिया की स्थिति नही उत्पन्न होगी और समाज मे हार्दिकता का सन्निवेश होगा । प्रेमचन्द ने सुधार पर बल दिया था, अन्तश्चेतना पर नही । किन्तु एक के सुधार से दूसरे की समस्या का समाधान नही होता । एक समस्या दूसरे स्थान पर अपना मार्ग खोजती है और सुधार की अन्तिम स्थिति की सम्भावना कही भी नही की जा सकती । किन्तु जैनेन्द्र का विश्वास है कि यदि सुधार 'मूल' (रूट काज ) मे हो तो ऊपरी रूपाकार पर अटकने की आवश्यकता नही होगी ।
जैनेन्द्र ने समाज की कुरीतियो और रूढियो मे सुधार न करने के साथ ही सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियो मे सुधार के प्रश्न को निराधार सिद्ध किया है । जैनेन्द्र की दृढ मान्यता है कि प्रेम की स्वीकृति मे शोषक और शोषित की समस्या कभी भी उत्पन्न नही हो सकती । उनके अनुसार जिसमे पीडात्मक प्रेम होगा, वह शोषक और धनाढ्य बनेगा ही नही । दूसरे के शोषण मे अपना पोषण होता है । अपना पोषण अपने आप मे कोई सार्थकता नही रखता । अतएव शोषण को समाप्त करने के लिए शोषण की जड को ही समाप्त कर देना होगा । वस्तुत शोषण को समाप्त करने से अधिक, जहा से शोषण की वृत्ति निकलती है, उसे रोकना ही सच्ची सामाजिकता है। जैनेन्द्र के अनुसार सच्ची सामाजिक चेतना, मानव सवेदना से पृथक हो ही नही सकती । मानवसवेदना ही मानव जीवन का परम साध्य है। कानून और नियम के आधार पर aft सामाजिकता मे हार्दिकता का अभाव रहता है । जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य
ही मानव वेदना का स्वर मुखरित होता हुआ दृष्टिगत होता है । उन्होने 'स्व' 'पर' की समस्या को ही समस्त द्वन्द्वो का आधार माना है । जब तक स्वार्थनिष्ठ है, तब तक समाज का कल्याण सम्भव नही हो सकता । यदि 'स्व' मे 'पर' के प्रति परस्परता अथवा प्रेम की भावना का समावेश हो जाय तो विद्रोह की स्थिति ही नही उत्पन्न होगी । देश ही नही, विश्व मे व्याप्त सारे सघर्षों का मूल कारण स्वार्थ अर्थात् 'पर' का निषेध है । पर के सत्कार मे सत्य की स्वीकृति होती है, इसलिए सारे विकार सत्य मे समाहित होकर स्वत ही निर्मल हो जाते है । जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष के जीवन मे 'स्व' 'पर' की सार्थकता से लेकर राष्ट्र के हित मे भी 'स्व' और 'पर' की भावना को ही आधार बनाया है । मानव जीवन की विराट् भूमि उनके साहित्य मे सिमट कर समा गई है, अन्तर यही है कि उन्हें घटनाओ का जाल नही फैलाना पडा, क्योकि विविधताओ का मूल एक ही रहा है । जीवन की व्याप्ति को सीमित परिवेश मे लेने के कारण उसमे प्रभावोत्पादकता उत्पन्न हो गई है । यही वह मापदण्ड है, जिसमे वे व्यक्ति के साथ समाज को भी