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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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एक समस्या उत्पन्न होती है और उसमे सुधार की आवश्यकता का अनुभव होता है । ऐसी समस्याओ को लेकर लिखा गया साहित्य कार्य- विशेष मे ही जीता है और अपना प्रभाव डालता है, किन्तु सीमित काल के अनन्तर उसका महत्व समाप्त हो जाता है और वह बासी पुष्प के सदृश प्रभावोत्पादक प्रतीत होता है । जैनेन्द्र के अनुसार सुधार की प्रवृत्ति सम-सामयिकता को लेकर ही होती है । उनकी दृष्टि मे सुधार तो सदैव बाह्य स्थितियो का ही होता है । उसमे जितना भी ऊपरी परिवेश है, उसमे कितना भी सुधार हो, हमेशा अपर्याप्त रहेगा । उनकी दृष्टि मे वृक्ष यदि सूखता है तो उसके ऊचे से हरियाली लाने से क्या लाभ ? आन्तरिक रस से ही उसमे सच्चे रूप मे हरियाली आ सकती है । ऊपरी आकार (फार्म) मे इधर-उधर से परिवर्तन आने से समस्या का समाधान सम्भव नही हो सकता । वस्तुत आज साहित्य के लिए श्रावश्यक है — चेतना का उभार और सस्कार । जैनेन्द्र के अनुसार साहित्य का ध्यान उसी पर केन्द्रित होना चाहिए | सामाजिक रीति-नीति पर अटकने से समस्या का सही निदान नही प्राप्त होता है । जो ऊपर से दिखता है वह क्षणिक तथा नश्वर है, उसमे स्थायित्व की क्षमता नही होती, अतएव साहित्य और जीवन के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है प्रेम की स्वीकृति । जो मान्यताए रूढ और जड हो गई है, उनमे निश्चय ही जीवन का रस प्रवाह रुक गया है । आज साहित्य की आवश्यकता, जीवन मे रस के प्रादुर्भाव और सचार मे ही पूर्ण हो सकती है ।
वस्तुत: जैनेन्द्र की दृष्टि अपने पूर्ववर्ती साहित्यकारो से पूर्णत भिन्न है । वे किसी भी स्थिति को आत्मता से निरपेक्ष रहकर स्वीकार करने में असमर्थ है । यही कारण है कि इनके साहित्य मे, विधवा विवाह, वेश्यावृति उन्मूलन आदि किसी भी समस्या के सुधार का बीडा नही उठाया गया है । 'परख' मे बाल विधवा कट्टो के प्रति लेखक मे पूरी सहानुभूति है, किन्तु वे चाहते हुए भी विधवा-विवाह को सामाजिक स्तर पर सम्पन्न होते हुए नही दिखा सके है और न ही इस सम्बन्ध मे सुधार के हेतु उन्होने कोई सुदृढ कदम ही उठाया है । उनका विश्वास है कि सुधार ऊपर से थोपी हुई वस्तु है । यदि सुधार की दृष्टि अन्त प्रसूत हो तो उसमे दबाव के स्थान पर स्वेच्छा और सहजता का प्रादुर्भाव
१. 'आज आवश्यकता के दबाव में आकर हम राष्ट्रीय रचना माग सकते है और उसकी अभ्यर्थना कर सकते है । लेकिन काम निकलने पर वही हमारे लिए भूल जाने लायक पदार्थ बन सकता है । जिसका ऐसा भाग्य हो, उसे साहित्य नही कहते ।'
-- जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया,' भाग ६ ( भूमिका से ) ।