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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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पर ईर्ष्यालु इत्यादि । इससे स्पष्ट होता है कि प्रेमचन्द के पात्र एक निश्चित रूपाकार मे ढलकर ही विकसित होते है । उनके पात्रो के सम्बन्ध मे सब कुछ स्पष्ट होता है । इसीलिए उनका चरित्र समझने में कठिनाई भी नही होती। वे रेलगाडी के सह अपनी पटरी से इधर-उधर नही जाते, क्योकि उनमे जोखिम उठाने का साहस नही है। जबकि जैनेन्द्र के पात्रो का व्यक्तित्व सस्पेस की स्थिति में पाठक को भरमाता रहता है । उनकी अधिकाशत सभी रचनाओ मे पात्रो की यही प्रकृति है । 'त्यागपत्र' की मृणाल हो अथवा 'कल्याणी' मे कल्याणी के सम्बन्ध, हमारे मन मे सदैव एक गहरे सशय की स्थिति बनी रहती है । सीधी-सादी मृणाल के सम्बन्ध मे भला यह कल्पना की जा सकती थी कि वह कोयले वाले की गन्दी कोठरी मे जाकर रहेगी और फिर वहा भी न रुक सकेगी । कल्याणी के व्यक्तित्व मे कही भी ठहराव नही है । वह कभी कुछ कहती है और कभी कुछ | कभी लेखिका बनती है, कभी गृहिणी और कभी
क्रानी । इन सब से परे उसका अन्तर्द्वन्द्व बाह्य जीवन को उद्वेलित किए रहता है । उसके व्यक्तित्व का रहस्य उसके बाह्य जीवन से प्राप्त नही हो सकता । बाह्य स्थिति तो हमे एक उलझन मे डाल देती है । हम केवल 'धे का भेद', व 'गवार', 'कह पथा' आदि कहानियो में हम सत्य का रहस्य जानने के लिए प्रतिपल उत्सुक रहते है। यह उत्सुकता ही जैनेन्द्र के साहित्य का प्राण हे । यदि जिज्ञासा समाप्त हो जाय तो साहित्य जीवन-शक्ति शून्य प्रतीत होगा । लेखक पात्रो के साथ ही पाठक को भी मकडी के जाले के सदृश अपने में ही उलझाये रहता है । जैनेन्द्र की सबसे बडी विशेषता यह है कि उनके पात्र पाठक को सम्भावना के विपरीत क्यो न जाये, किन्तु वे पाठक की सवेदना से वचित नही हो पाते । कौन ऐसा व्यक्ति होगा, जिसे ' त्यागपत्र' की मृणाल को अपनी हार्दिकता अर्पित करने मे सकोच हो अथवा कल्याणी के विक्षोभ और पीडा पर किसका मन भुझलाहट के साथ ही साहनुभूति से न भर उठेगा ।
जैनेन्द्र की रचनाओ की सबसे बडी समस्या है, उसका समझ में न आना । उनकी कुछ रचनाओ को छोडकर अधिकाशत सभी के साथ हमे कठिन साधना करनी पडती है । 'कल्याणी' जैसे श्रेष्ठ उपन्यास का रसास्वादन करने के लिए उसे एक बार पढना ही पर्याप्त नही है । क्योकि जैनेन्द्र ने पात्रो के जीवन मे इतने गैप दिखाए है कि उन्हे भली प्रकार समझे बिना उनके व्यक्तित्व को समझना दूभर है । अतएव उनकी रचनाओ को पढते समय पाठक को बहुत
१. जैनेन्द्रकुमार 'कहानी अनुभव और शिल्प, पृ० स० ३८ ।