Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 269
________________ २६४ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन चलता है, उसी प्रकार साहित्य-प्रक्रिया भी सम्भावित ही होनी चाहिए । यही कारण है कि जैनेन्द्र की रचनायो को पढकर ही समाप्त कर लेने पर पाठक का कर्तव्य पूरा नही हो पाता, क्योकि रचना का अन्त तो उसे स्वय ही सोचना पडता है। इस सम्बन्ध मे जैनेन्द्र ने स्पष्टत स्वीकार किया है कि 'भाग्य के प्रति जो साश्चर्य नही है, वह पहले से जीवन के भेद को यदि किसी थियरी के रूप मे मुट्ठी मे बाधे हुए है, तो पाठक को किस आकर्षण से खीच सकेगा।'' जैनेन्द्र की दृष्टि मे सुनिश्चित, सुनिर्दिष्ट प्रयोजन मे बाधकर होने वाली रचना साहित्यिक सृष्टि न हो सकेगी। उसमे बुद्धि का दबाव ही अधिक रहेगा। जैनेन्द्र की अधिकाश कहानी तथा उपन्यासो मे यह शैली स्पष्टत दष्टिगत होती है । 'मास्टर जी', 'क पथा', 'पाजेब', 'आत्मशिक्षण' आदि कहानियो मे एक अज्ञात उत्सुकता अन्त की ओर खीचती है। किन्तु कभी-कभी तो अन्त मे भी सच्चाई अस्पष्ट बनी रहती है। जैनेन्द्र की भाषा जैनेन्द्र के साहित्य मे भाषा प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुई है । वह साधन है, साध्य नही । सत्य की पकड भापा द्वारा सम्भव नही हो सकती । सत्य को शब्दो मे सीमित करके हम सत्य की महत्ता को क्षीण कर देते है। 'कल्याणी' मे शब्द की असमर्थता की ओर इगित किया गया है। उनके अनुसार 'शब्द' बुद्धिनिर्मित 'शब्द' सतह की लहरो को गिनते है, गहराई को वे कहा नापते है ? क्या वे उसको तनिक भी पाते है, जो अन्तर्गत है ? जो अनुभव होता है, क्या वह शब्दो मे आता है ? रेखा मे बधता है १२ जैनेन्द्र के साहित्य मे विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है। भावात्मक स्थलो की अभिव्यक्ति के लिए उनके समक्ष भाषा असमर्थ-सी प्रतीत होती है। ऐसी स्थिति मे मौन ही सम्भाषण की भाषा बनती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे ऐसे अनगिनत स्थल है, जहा उनके पात्र वाणी द्वारा जो कहने में असमर्थ होते है, उसे वे मौन द्वारा निवेदित करते है । जैनेन्द्र की भाषा की सजीवता, प्रभावोत्पादकता, चक्षोपमत्ता और हार्दिकता का जो स्वरूप 'परख' मे मिलता है वह हिन्दी साहित्य-जगत मे अपना बेजोड स्थान रखता है। बिहारी के द्वारा पूछे गए प्रश्नो के उत्तर मे १ जैनेन्द्रकुमार 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', पृ० स० ४० । २ जैनेन कुमार 'कल्याणी', पृ० स० १०० । 'भाषा पहरावन है और शब्द कोई भी सार सत्य को नही पकड सकता।' ३ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० १०१ । ४ जैनेन्द्रकुमार 'परख', पृ० ७५-७६ । <

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