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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
२४७ व्यक्तित्व और मूल्यो का निरूपण अधिक होता है।' उपन्यास साहित्य को परम्परा
उपन्यास-साहित्य के आविर्भाव-काल से लेकर आज तक की रचनायो मे परिस्थिति और आवश्यकतागत अनेकानेक मोड (परिवर्तन) दृष्टिगत होते है। प्रारम्भ मे उपन्यास और कहानिया जादू, चमत्कार आदि विचित्रताप्रो से पूर्ण होती थी। किशोरीलाल गोस्वामी, देवकीनन्दन खत्री आदि ने उपन्यास-जगत को अपनी देन से गौरवान्वित तो अवश्य किया, किन्तु उनमे ऐसी जीवन्त शक्ति नही थी जो काल की सीमा को पार करती हुई स्थायित्व ग्रहण कर सकती। उनमे न तो तत्कालीन परिस्थितियो का चित्रण है और न ही मानव जीवन की अन्तश्चेतना की वह अभिव्यक्ति जिसे सहज ही स्वीकार किया जा सके।
उपन्यासकार प्रेमचन्द
उपन्यास-कला का पूर्ण विकसिक रूप हमे प्रेमचन्द के उपन्यासो मे ही प्राप्त होता है । प्रेमचन्द के उपन्यास जीवन के जितने व्यापक परिवेश को अपने मे समेटे हुए है, उतना किसी अन्य उपन्यासकार के द्वारा सम्भव नही हो राका है । जीवन की बहुमुखी धारा उनके साहित्य मे विविध स्रोतो से प्रवाहित हुई है। तत्कालीन जीवन की ऐसी कोई भी समस्या न थी, जो प्रेमचन्द की लेखनी के द्वारा बच निकली हो । 'घर और बाहर' अर्थात् भाई-भाई के झगडे, जमीन और जायदाद से लेकर, राजनीति और समाज की विविध समस्याए प्रेमचन्द के उपन्यासो का विषय बनी। इस प्रकार उपन्यासो द्वारा साहित्य में विविधता का समावेश हुआ उसमे मानव जीवन से सान्निध्य स्थापित करने की प्रेरणा उद्भूत हुई। साहित्य का परिवर्तनशील सत्य
जिस प्रकार कथा साहित्य की परम्परा मे प्रेमचन्द के उपन्यास एक नवीन कडी के रूप मे प्राप्त हुए तथा उनके द्वारा साहित्य-जगत को एक नवीन दृष्टि, चेतना और स्फूर्ति प्राप्त हुई, उसी प्रकार प्रेमचन्दोत्तर साहित्य मे जैनेन्द्र भी एक नवीन चेतना लेकर अवतरित हुए । काल अनन्त है। अखण्ड है किन्तु विकास अथवा प्रगति काल की सापेक्षता मे ही फलित होती है। विविध प्रवृत्तिया अपनी विशिष्टता के कारण युग-विशेष का प्रतिनिधित्व करती है और १. डा० लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय · 'बीसवी शताब्दी . हिन्दी साहित्य नये सदर्भ'
प्रथम स०, १९६६, इलाहाबाद, पृ० २५१-२५२ ।