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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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बनकर स्वयं को सहज मानवीय भावनाओ से परे रखना नितान्त अप्राकृतिक है । जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति देवता बनने के लोभ मे मानवीय भावो और प्रवृत्तियो का दमन नही करते। कोरा आदर्श व्यक्ति को जड बना देता है तथा व्यक्तिगत भेद को मिटाकर सभी को आदर्श की पक्ति में आसीन कर देता है । 'टकराहट' तथा ' जयवर्द्धन' में कैलाश और ऐसे पात्र है जो स्वय को मानवीय दुर्बत से दूर रखकर जनहित करना चाहते है । वे अपने जीवन मे प्रदर्श की ऐसी पाचीर खडी कर लेते है, जिसमे उनका जीवन शुष्क-सा प्रतीत होने लगता है और वे यन्त्र- पुरुष के सदृश कर्म करते है । कैलाश ने एक ऐसे ग्राश्रम की स्थापना की है, जिसमे रहकर व्यक्ति जड हो जाता है, उसकी मूल प्रवृत्तियो के विकास का प्रवसर नही मिलता । जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति जडीभूत होकर शान्त नही हो सकता । उसके अन्त मे हलचल बनी ही रहती है । स्वय से बचकर आश्रम में रहना मिथ्या है । तपस्वी बनने मे व्यक्तित्व का ह्रास होता है । व्यक्तित्व का समुचित विकास तो सहजता मे ही सम्भव है ।' 'जयवर्धन' में इला जय को देवता नही बनने देना चाहती । वह प्रेम चाहती है । प्रेम की प्राप्ति के हेतु उसका मानवीय रहना ग्रनिवार्य है । इला के प्रेम कारण ही जय का जीवन कठोर नही हो पाता । 'टकराहट' में भी लीला श्राश्रम में शान्ति प्राप्त करने आती है, किन्तु वहा रहकर वह अपने प्रति छल नही कर पाती और वापस चली जाती है । वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार 'व्यक्तित्व में खुरच कर और छीलकर कुछ निकाला नही जा सकता ।" "विचार - शक्ति', 'विज्ञान' ग्रादि कहानियो मे लेखक ने इस तथ्य की सत्यता पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि त्याग और सयम आदि के ऊपर 'व्यक्ति' है । इस सत्य का निषेध करके वह पूर्णता की प्राप्ति नही कर सकती । शब्दो की लपेट मे
१ जेनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ७, तृ० स०, १९६३, पृ० स
१४ ।
२ जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ७, तृ०स० १६६३, पृ०स०६ । ३ जैनेन्द्रकुमार ' मन्थन', प्र० स०, दिल्ली, पृ० स० १२२ ।
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'सभ्य हो, सयमी हो, उदात्त हो, त्यागी हो। इन सब के नीचे मै बता देना चाहती हू कि तुम प्रादमी भी हो। इस सत्य से आाख बचाकर तुम भागना चाहते हो, तो जाओ, मैं कब रोकती हू ।... कोई फरिश्ता हो सकता, यह भूल मैं तुममे टिकने न दूगी ।'
-- जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ८ तृ० स०, १६६४, पृ० स० १३५ ।
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