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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
चाहिए। जैनेन्द्र के साहित्य मे सामाजिक व्यवस्था और प्रगति के हेतु क्रान्ति का उद्घोष दृष्टिगत होता है। यह क्रान्ति देश, समाज और राष्ट्र से अधिक अपने पडोसी को लेकर फलित होती है, क्योकि आज व्यक्ति आकाश की ओर दौड रहा है, किन्तु धरती पर अपने पडोसी से अपरिचित है । जैनेन्द्र के अनुसार 'समाज और देश का प्रारम्भ पडोसी से है, अन्यथा देश, समाज, प्रान्त धारणाए है, और वे कही है ही नही ।'२
जैनेन्द्र के साहित्य का सर्वेक्षण करने से ज्ञात होता है कि विश्व के समस्त द्वन्द्वो का मूल व्यक्ति की स्वार्थवृत्ति ही है । 'स्व' और 'पर' चाहे व्यक्ति, व्यक्ति के सम्पर्क मे हो अथवा राष्ट्र, और राष्ट्र के सन्दर्भ मे हो, द्वन्द्वात्मक स्थिति उत्पन्न करने मे ही सहायक होते है । जैनेन्द्र के अनुसार वास्तविक प्रगति स्वार्थवृत्ति के निषेव मे ही सम्भव हो सकती है। सच्चे क्रान्तिकारी का उद्देश्य व्यक्ति मे परमार्थ की भावना का उदय करना है, जिससे वह मानवता के हित के लिए उन्मुख हो सकता है। जैनेन्द्र की पारमार्थिक दृष्टि पूर्णतावा दियो के सदृश ही मानव जाति के हित का उद्घोष करती है।
प्रजातन्त्र
__उपरोक्त सभी वाद-पूजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद व्यक्ति जीवन की समस्या का समाधान करने में असमर्थ है । प्रजातन्त्र द्वारा यह कल्पना की जाती
१ जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ५६ । २ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ८, तृ० स०, पृ० ७६ । ३ ‘पशु भी स्वत्व को लेकर जन्मता है, मनुष्य ही है जो परिवार मे और
समाज मे जन्म लेता है । वही है आत्म। 'प्रादर्श के लिए जीने मे इसलिए उतनी महिमा नही है, जितनी पडोसी के लिए जीने मे है'।
___ --जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ८, पृ० स० ७६ । 'जिस स्वार्थ और परमार्थ के प्रश्न को अन्य विचारको ने शाश्वत समस्या का रूप दे दिया था, उसे पूर्णतावादियो ने मानव-सत्य के आधार पर समझाया और उसे आकर्षक, सुन्दर, व्यापक, वास्तविक तथा कल्याणकारी रूप दिया । यदि इस सत्य के आधार पर आज के विश्वव्यापी शोषकशोषित के प्रश्न को सुलझाये तो व्यक्ति और राष्ट्र के ध्वस के बदले एक उन्नत मानव जाति का निर्माण हो जायगा, जिसे पाशविक प्रवृत्तिया छिपाये हुए है।'
--शान्ति जोशी 'नीतिशास्त्र', पृ० २६७-६८ ।