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जैनेन्द्र और व्यक्ति
२४३ है कि उसमे प्रजा द्वारा अर्थात् जनता द्वारा जनता के हित पर ही ध्यान दिया जायगा । बाह्य रूप मे देखने पर प्रजातन्त्र की प्रणाली राजकीय व्यवस्था के हेतु शुभ प्रतीत होती है । जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास 'मुक्तिबोध' मे प्रजातात्रिक प्रणाली की विवेचना की है। उनके अनुसार 'प्रजातान्त्रिक प्रणाली मेपालियामेण्ट मे बस दो-चार बरस उछलकूद करने का मौका मिल जाता है । बाहर के लोग देखते रहते है कि हमारा आदमी क्या कर रहा है, इस तरह नकेल तो बाहर हम लोगो के हाथ ही रहती है । नहीं तो जनतन्त्र के माने कुछ नही रह जाते । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे प्रजातन्त्र स्वय मे सदोष नही है। उसका उद्देश्य जनता मे ही पूर्ण होता है, किन्तु प्रजातन्त्र मे भी कुछ ऐसे दोष विद्यमान है, जिनके कारण जनता और पार्लियामेण्ट के सदस्यो के मध्य पुन दूरी उत्पन्न हो जाती है और नेता स्वय को प्रशासक समझने लगते है। भारत जैसे गरीब देश के मुट्ठी भर नेता जनता के पैसे का सुखभोग करते है। उन्हे पर्याप्त मात्रा मे भत्ता प्राप्त होता है ।
प्रजातन्त्र मे 'नेपोटिज्म' की भावना को आधार मिलता है। ससद का सदस्य जनता से अधिक अपने भाई-भतीजो का सेवक होता है । परिवार के लोग अपनी प्रतिष्ठा और प्रगति के हेतु ही अपना प्रतिनिधि ससद मे भेजते है। इस दृष्टि से जैनेन्द्र के उपन्यास 'मुक्तिबोध' के विचार बहुत ही महत्वपूर्ण है। 'मुक्तिबोध' का नायक प्रसाद स्वच्छन्द रूप से जनसेवा करने के हेतु पार्लियामेण्ट से त्यागपत्र लेना चाहता है। वह अपने परिवार के लोगो की स्वार्थ प्रवृति से पूर्णत अवगत है। इसलिए वह पद से मुक्ति चाहता है । उसके पदारूढ होने से अन्य लोग अनुचित लाभ उठाना चाहते है। इसलिए उसे बार-बार पदग्रहण के हेतु विवश किया जाता है ।' प्रसाद के पद-त्याग करने से उसके पुत्र का भविष्य नहीं बन सकता । समाज मे उसे प्रतिष्ठित स्थान नही प्राप्त हो सकता। प्रसाद अन्तत सदस्यता से मुक्ति प्राप्त करने के लिए ही प्रयत्नशील रहता है। अन्त मे जब उसे विवश होकर पद ग्रहण करना पडता है तब उसकी दृष्टि मे
१ जैनेन्द्र कुमार 'मुक्तिबोध', प्र० स० १६६५, पृ० स० २४ । २ पार्लियामेण्ट मे हमने अच्छा खासा भत्ता अपने लिए तैयार कर रखा है, उससे पहले जानते हो और भी ठाठ थे ।'
-जैनेन्द्र कुमार 'मुक्तिबोध', पृ० स० ४३ । ३. जैनेन्द्रकुमार : 'मुक्तिबोध', पृ० स० १३ । ___'आपका मन भर चुका होगा, पर हमे तो अभी सब कुछ पाना है।..' ४. जैनेन्द्रकुमार : 'मुक्तिबोध', पृ० स० ६२ ।