Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 240
________________ जैनेन्द्र प्रोर व्यक्ति २३५ विचारो के आधार पर व्यक्ति के अन्त मन को व्याख्यायित किया है, उसी प्रकार मार्क्स द्वारा बाह्य जीवन के द्वन्द्वो को 'अर्थ' के आधार पर विवेचित किया गया है। ___मार्क्स की समाजवादी नीति का आदर्श समाज से आर्थिक विषमता को दूर कर मानव-एकता की स्थापना करना है, जहा शोषक और शोषित का भेद पूर्णत समाप्त हो जाय । समाजवाद द्वारा वर्गहीन समाज की स्थापना की जाती है। इसमे सारी सत्ता स्टेट मे केन्द्रित हो जाती है तथा व्यक्तिगत सत्ता को (पूजी) प्रश्रय नहीं मिल पाता । समाजवाद का कार्य समाज मे क्रान्ति उत्पन्न करके परिवर्तन लाना है । सभ्यता का विकास तथा विज्ञान की प्रगति द्वारा जीवन को अधिकाधिक सुखमय बनाना ही समाजवादी अथवा साम्यवादी नीति का उद्देश्य है । उन्होने जीवन-स्तर के बढाने पर विशेष बल दिया है। मार्क्स के अनुसार हमारा साहित्य, संस्कृति, कला आदि का उद्देश्य व्यक्ति की आर्थिक स्थिति को अधिकाधिक समृद्ध बनाना है । मार्क्सवाद मे नैतिकता पर बल नही दिया गया है, उसमे भौतिकता तथा औद्योगिक प्रगति पर अधिक ध्यान आकृष्ट किया गया है तथा एकता के हेतु रक्तक्रान्ति को अनिवार्य बताया गया है। वस्तुत समाजवाद मे सामाजिकता पर बल दिया गया है और व्यक्ति-हित की अवहेलना की गई है। उनकी दृष्टि मे 'चेतना' और भौतिक पदार्थ मे कोई अन्तर नही है । दोनो के संघर्ष के परिणामस्वरूप भी भौतिक-सभ्यता का विकास होता है। उपरोक्त साम्यवादी दृष्टि का विवेचन करते हुए जब जैनेन्द्र के साहित्य का अवलोकन करते है, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि मार्क्सवाद और जैनेन्द्र की दृष्टि मे मूलत अन्तर है । एक भौतिकता प्रधान है, दूसरे मे आध्यात्मिकता का प्राचुर्य है । मार्क्स की दृष्टि मे समस्या का मूल कारण आर्थिक है, जैनेन्द्र की दृष्टि मे मानव जीवन के समस्त शब्दो का मूल कारण "The socialism solution, as it ought to be clear from our analysis of the process of accumulation of wealth, is to abolish private ownership of the means of production and to cstablish over the ownership of the whole community 'J. P Naran-Soc , Sar & Democracy-1964 Bom (P.13). २. महात्मा गाधी 'दि वायस आफ टूथ', पृ० २४२ । ३. जयप्रकाश नारायण . 'सोशलिज्म सर्वोदय एण्ड डेमोक्रेसी', पृ०स० १५३ ।

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