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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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हृदय मे घोर वितृष्णा और अनुताप है, जो कि उनके साहित्य मे स्पष्टत व्यक्त हुआ है। 'आतिथ्य' कहानी मे लेखक ने ऐसे व्यक्ति का चित्रण किया है, जिसकी दृष्टि मे मुनाफा और स्वार्थ प्रमुख है, मित्रता गौण है । वह अपनी
आमत्रित अतिथि (मित्र) को अपनी गोशाला, डेरी आदि के सम्बन्ध मे सविस्तार परिचय देता है, किन्तु अतिथि-सत्कार के नाम पर मित्र के बच्चो को छटाक भर दूध देने मे वह अपनी असमर्थता ही व्यक्त करता है । प्रस्तुत कहानी द्वारा लेखक ने व्यक्ति की स्वार्थी मनोवृत्ति का बहुत ही स्पष्ट रूप व्यक्त किया है।
सदाचरण
जैनेन्द्र के साहित्य मे सदाचरण की ओर भी दृष्टिपात किया गया है । जैनेन्द्र के अनुसार भ्रष्टाचार को दूर करने का ठेका लेने वाले नेता अथवा सुधारक सही रूप मे समाज का सुधार नहीं कर सकते, क्योकि समाज मे दुराचार और सदाचार की मान्यताए जीवन के बाह्य स्वरूप पर आधारित है । आधुनिक युग में वही व्यक्ति सदाचारी और सम्भ्रात समझा जाता है, जिसके पास अधिकाधिक धनार्जन करने के साधन है तथा जिसका जीवन-स्तर ऊचा है । भ्रष्टाचार को दूर करने का ठेका भी ऐसे ही व्यक्ति लेते है, जिनके पास किसी भी वस्तु का प्रभाव नहीं है । अपने मे पूर्ण होकर वे सुधार करना चाहते है । आज सदाचार का मानदण्ड लम्बी-चोडी दावते देने तथा जी खोलकर स्वागत और सत्कार करने मे है । खर्च करने मे सदाचारी वृत्ति का हास होता है। जैनेन्द्र के अनुसार आधुनिक युग मे सदाचार के प्रसार का कार्य राजनेतामो तक ही परिमित हो गया है, किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे राजनीतिक होकर सदाचारी बने रहना सम्भव नही है । उनका विश्वास है कि यदि अर्थवृद्धि से सदाचार बढता हुआ माना जाता है तो दुराचार भी आमदनी को बढाने चढाने की चेष्टा मे ही होता है । 'चक्कर सदाचार का' कहानी जैनेन्द्र के विचारो की प्रतिनिधित्व करने मे पूर्णत समर्थ है। मिस्टर वर्मा की सदाचार के प्रसार की नीति के प्रति अरुचि तथा उदासीनता इसी तथ्य को द्योतित करती
१. जैनेन्द्रकुमार : 'जनेन्द्र की कहानिया, भाग ६, पृ० स० ११५ । २ 'सदाचार बिना बढी-चढी आय के हो नही सकता । बढी-चढी पाय के लिए ही दुराचार किया जाता मालूम होता है।' -~-जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानियाँ', भाग १०, प्र० स०, १६६६,
पृ० स० १५७।