________________
२३२
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
है कि वे समाज-सुधार और सुधारक- सस्थाओ मे विश्वास नही करते । उनका विश्वास है कि सुधार के लिए आवश्यक है हृदय परिवर्तन । अन्तस् से होने वाली सुधारेच्छा ही सत्य है । ऊपर से सुधार की प्रचारक वृत्ति द्वारा भ्रष्टाचार की ही वृद्धि होती है । जैनेन्द्र के अनुसार 'ससार का तथा राष्ट्र का भला नेता नही कर सकता, क्योकि उसमे राष्ट्रीय नीतियो का बाहुल्य होता है । 'उनकी दृष्टि मे यदि सुधार सम्भव हो सकता है तो गाधी और ईसा जैसे शहीदो के द्वारा ही हो सकता है । वस्तुत अर्थ-वृद्धि द्वारा जीवन स्तर को बढाते हुए सुधार करने के प्रयत्न मे व्यक्ति के अपने ही पाप को छिपाने का भाव लक्षित होता है ।
पैसा और व्यक्ति
जैनेन्द्र की दृष्टि मे समाज के स्तर को बढाने के लिए आवश्यकता है, पारस्परिक स्नेह, दया और ममता की । उनके साहित्य का प्रवलोकन करते हुए यह ज्ञात होता है कि जब तक हमारा अमीरी के प्रति मिश्या दम्भ समाप्त नही होगा, तब तक परस्परता की कल्पना करना निरर्थक है । जैनेन्द्र के हृदय में व्यक्ति के तिरस्कार और अर्थ के सत्कार को लेकर गहरा विक्षोभ है, क्योकि ससार मे प्राय ऐसा घटित होते हुए देखा जाता है कि मार्ग मे पडा हुआ पैसा उठा लिया जाता है और दुख से कराहता हुआ व्यक्ति छोड दिया जाता है । पैसे की शक्ति का ज्ञान प्रबोध बच्चे को भी होता है, क्योकि पैसे से व्यक्ति का हित जुड़ा होता है । पैसे की शक्ति ने ही गरीब और अमीर के बीच गहरी खाई उत्पन्न कर दी है, जिससे व्यक्ति, व्यक्ति को पहचानने में असमर्थ हैं । जैनेन्द्र की दृष्टि मे जब तक हमारी अर्थ मानसिकता के स्वरूप में अन्तर नही आयेगा, तब तक मानव जीवन यो ही तिरस्कृत होता रहेगा और सचित धन समाज का कोढ बना रहेगा । उनकी दृष्टि मे मालदार बनने की इच्छा मनुष्यता की निधि मे नकाब लगाकर चोरी करने की इच्छा से कम या भिन्न नही है । '
पूँजीवादी दृष्टि
जैनेन्द्र के साहित्य मे पूजीपतियो के प्रति उनका गहरा प्रकोप प्रभिव्यक्त हुा है। समाज में उत्पन्न प्रार्थिक वैषम्य का दायित्व पूजीपतियों पर ही है ।
१ जैनेन्द्रकुमार ' सोच-विचार', पृ० स० ८८ ।
२ जैनेन्द्रकुमार 'सोच-विचार', पृ० स० ८८ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'सोच-विचार', पृ० स० ६३ ।