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जैनेन्द्र पोर व्यक्ति
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पाती । जैनेन्द्र की अनुभवगम्य दृष्टि उन्हे सिद्धान्त से अधिक व्यावहारिकता को
आधार बनाने की ओर उन्मुख करती है। यही कारण है कि वे किसी प्रचलित सिद्धान्त पोर प्रादर्श को अपने अनुभव की कसौटी पर परखे बिना स्वीकार नहीं करते।
आथिक वैषम्य
जैनेन्द्र के साहित्य मे सामाजिक और आर्थिक विषमता का स्पष्ट स्वरूप दिखायी देता है । उन्होने अपने निकट की परिस्थिति से आत्मसात् होकर उसमे निहित सत्य के उद्घाटन का प्रयास किया है । बडे-बडे शहरो जहा चारो ओर चहल-पहल तथा भव्य प्राकर्षण के दृश्य दिखायी देते है, वही गरीबी भी दुबकी हुई कराहती रहती है। दिल्ली के बाजार है जहा अमीरी तनकर अपना प्रदर्शन करती फिरती है और जहा गरीबी अपने को अमीरी वाणी मे छिपाए, शर्माए चलती है। उनकी रचनाओ मे भव्यता व दारिद्रय के वैषम्य का बडा ही मर्मस्पर्शी चित्र प्राप्त होता है, जिससे जैनेन्द्र की सूक्ष्म पर्यवेक्षण-शक्ति तथा गानव जीवन के प्रति उनकी अटूट निष्ठा परिचय प्राप्त होता है। 'अपना प्रदर्शन अपना भाग्य'' शीर्षका कहानी इस दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण तथा उपयुक्त है । इस कहानी म जैनेन्द्र ने धार्मिक विषमता से उत्पत्र गरीबी के कारण मौत के शिकार बनने वाले बालक का ऐसा मन्तिक चित्र प्रस्तुत किया है जो सहसा पापाण-हृदय को भी झकझोर देने में समर्थ है। उपरोक्त कहानी मे लेखक ने साम्राज्यवादी अग्रेजो के शासन-काल की सभ्यता और संस्कृति का चित्र प्रस्तुत किया है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति का हित ही प्रधान है, इस दृष्टि से उन्होने मानव-पीडा के विविध स्त्रोतो की ओर दृष्टिपात किया है। मानव को पशु समझने वाली उस अगरेज जाति की ओर भी उन्होने इगित किया है, जो घोडे के सदृश किसी हिन्दुस्तानी व्यक्ति पर भी कोडे मारने मे नही हिचकिचाते थे। इस बहानी मे लेखक ने विषमता का वह चित्र प्रस्तुत किया है, जिसमे सपन्नता के कारण आवश्यकता से अधिक सुख-सुविधा प्राप्त करने वाले कुछ ऐसे व्यक्ति है, और कुछ ऐसे है जो या तो साहब की 'मार' से मर जाते हे अथवा नैनीताल की पहाडियो मे ठडक से सिकुड कर प्राण त्यागने
१ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग २, चौथा स०, १६६६, दिल्ली,
पृ० स० १३६ । २ 'हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कहानिया', स० गणेशपाण्डेय, प्र० स०, १९५६, पृ०
स० ८०।