________________
जैनेन्द्र और व्यक्ति
२२७
ध्यान रखा गया है । समाज की पृष्ठभूमि पर ही व्यक्ति-जीवन का विकास होता है। व्यक्ति स्वय मे ही सीमित नही है। उसकी सार्थकता 'पर,' के सन्दर्भ मे ही सम्भव है । जैनेन्द्र के साहित्य मे 'स्व' पर अर्थात् व्यक्ति, व्यक्ति की परस्परता की ओर विशेषत दृष्टिपात किया गया है । सामाजिक प्राणी विभिन्न द्वन्द्वो के मध्य जीवनयापन करता है। राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक स्थितिया जीवन मे नाना द्वन्द्वात्मक रूप उत्पन्न करती है। ___त्याग की भावना से युक्त होकर ही व्यक्ति समाज का हित कर सकता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे वही व्यक्ति समाज को नया मोड और नई चेतना दे सकता है, जिसमे समाज की ओर से प्राप्त होने वाली यातनायो को सहने की क्षमता है। उनकी दृष्टि मे गाधी और ईसा एक महान आदर्श है। समाज धर्म की प्रतिष्ठा मे ही ईसा को सूली पर चढना पडा था। वस्तुत व्यक्ति समाज से निरपेक्ष नही हो सकता। समाज से स्वतन्त्र होकर चलने मे समाज द्वारा प्राप्त होने वाले दण्ड से नही बचा जा सकता तथापि पारमार्थिक व्यक्ति स्वय कष्ट झेल करके ही 'पर' के हित मे रत रहता है ।।
विभिन्न जीवनदृष्टि
व्यक्ति और समाज के जीवन की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न विचारधाराए प्रचलित है। ये विभिन्न धाराए जिस दृष्टि से व्यक्ति-जीवन की समस्यानो और व्यवस्था का विवेचन करती है, उनका तत्कालीन साहित्य पर प्रभाव पडना अनिवार्य है। साहित्य युग की देन है । आधुनिक युग मे साहित्य के स्तर पर तीन प्रमुख विचारधाराए और जीवन-नीतिया दृष्टिगत होती है। पहली मनोवैज्ञानिक धारा है, जिसके प्रणेता फ्रायड है। फ्रायड ने व्यक्ति के मन का विश्लेषण करते हुए उसके चेतन-अचेतन मन के रहस्योद्घाटन का प्रयत्न किया है। दूसरी ओर कार्लमार्क्स ने भौतिक जगत की विषमताओ से आक्रान्त मानव जाति के वर्ग-भेद को मिटाने का प्रयास किया है । प्रथम फ्रायडीय दृष्टि व्यक्तिवादी थी। दूसरी मार्क्सवादी दृष्टि वस्तुवादी अथवा समाजवादी है। मार्क्स-दर्शन का मूलाधार व्यक्ति न होकर सामाजिक और आर्थिक विषमता से उद्भूत समस्याए है। उनकी दृष्टि अर्थ प्रधान होने के कारण तथा राजनीति के सस्पर्श से विश्वव्यापी बन गई है। मार्क्स के समानान्तर चलने वाले जिस दर्शन मे मानव जीवन और साहित्य तथा राजनीति को सबसे अधिक अभिभूत
१. जैनेन्द्रकुमार · 'जैनेन्द्र की कहानिया, भाग १, तृ० स०, १९६२, दिल्ली,
पृ० स० १८६ ।