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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
सच्चाई छिप जाती है, किन्तु सत्यता शब्द मे ही सीमित नहीं होती। व्यक्ति नेता और प्रवक्ता बनने पर भी व्यक्ति ही रहता है । देवता बनने के लोभ मे व्यक्ति का व्यक्तित्व विकृत और विकारग्रस्त हो जाता है । मानसिक स्वास्थ्य के हेतु छल का निर्णय अनिवार्य है। जैनेन्द्र के अनुसार- 'व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए सत्य की स्वीकृति अनिवार्य है।'
दलित भी माननीय
प्राचीन साहित्य मे महत् प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति ही कथा का नायक होने का अधिकारी था। किन्तु आधुनिक सभ्यता और सस्कृति के नवीन उन्मेष ने जीवन के साथ साहित्य की धारा को भी नवीन मोड प्रदान किया है । आधुनिक समाज मे जागित भेद का कोई महत्व नही रह गया है । दलित और निम्नवर्गीय व्यवित भी साहित्य के उच्चासन पर आरूढ होने का अधिकारी है। वस्तुत जैनेन्द्र महान और प्रतिभाशाली व्यक्ति को ही पूज्य नही मानते, वरन् उनकी दृष्टि मे व्यथा से पूर्ण भिखारी और चोर तथा डाकू भी उतना ही महान है जितना आदर्शवादी नेता अथवा सुधारक । निम्नता तथा क्षुद्रता की अभिव्यक्ति करने वाले पात्र हृदय मे पीडा उत्पन्न करके हमारे प्रात्मीय बन जाते है। क्योकि उनकी आत्मा अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक होती है, उनमें प्रेम, दया और त्याग की भावना कूट-कूटकर भरी होती है । 'अधे का भेद' कहानी मे अधे भिखारी के जीवन को देखकर कौन कह सकता है कि उसके अन्तस् मे कितनी गहरी व्यवस्था छिपी हुई है और वह उस सारे उफान को दबाए हुए गलियो मे बच्चो के साथ गाता फिरता है । भिखारी के जीवन का इतिहास जानने के हेतु गदी बस्ती मे तथा समाज के उपेक्षणीय स्थलो पर जाना पड़ता है। उसकी जीवन-गाथा का रहस्य हृदय को सहसा झकझोर देता है। भिखारी की पत्नी वेश्या होते हुए भी कम सम्माननीया नही है, क्योकि उसका पेशा परिस्थिति और विवशता का परिणाम है, किन्तु उसके सस्कार बहुत उच्च है । कष्ट झेलकर भी वह प्रात्म-परिष्कार करने में समर्थ है जिससे उसकी आत्मा की पवित्रता पर व्यवसाय की कालिमा की छाया भी नही पड पाती । वस्तुत जैनेन्द्र
१ । तुम भी प्रवक्ता और तत्वज्ञाता के वाक्यो के नीचे जो हो वही हो। सत्य लपेट मे नही होता।'
जैनेन्द्र कुमार जैनेन्द्र की कहानिया', पृ० स० १२५ । २ जैनेन्द्र कुमार प्रतिनिधि कहानिया, स० शिवनन्दनप्रसाद, १९६६, प्र०स०,
पृ० स० ५७ ।