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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पूजीवाद का विद्रोह था भारत मे पूजीवाद के विकास के साथ व्यतितवाद का विकास हुआ और · साहित्य मे व्यक्तिवादी भावना ही अनेक रूपो मे अभिव्यक्त हुई । उपरोक्त व्यक्तिवादी विचारधारा का अभ्युदय सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियो के कारण हुआ था किन्तु जैनेन्द्र की त्यविततादी दृष्टि साहित्यिक-स्तर पर स्वीकृत है । साहित्य मे बाह्य जीवन और घटनायो का चित्रण अधिक होने के कारण व्यक्ति के अन्तर्भूत भावो और विचारो की अभिव्यक्ति का अवसर नही रहता था। जैनेन्द्र-साहित्य मे व्यक्तिवाद व्यक्तिस्वातन्त्र्य की समस्या को लेकर नही चला है । उसका प्रमुख विषय व्यक्तिजीवन हो समग्र स्वीकृति से सम्बद्ध है । जैनेन्द्र से पूर्व बाह्य घटनाग्रो के विश्लेषण मे अन्त जगत की उपेक्षा होती रही है। समूह, समाज और संस्था
आदि की तुलना मे व्यक्ति गौण माना जाता है । इस प्रकार वाद-विवाद प्रमुख हो जाता है और व्यक्ति-जीवन गौण । जैनेन्द्र का आदर्श व्यक्ति-जीवन को प्रमुखता प्रदान करना है।
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण मानव जीवन के प्रति प्रास्था विलुप्त हो गई है। विज्ञान की प्रगति उत्तरोत्तर तीव्रतर होती जा रही है । भौतिकता के विकास के साथ बाह्य जीवन अधिकाधिक सम्पन्न प्रोर समृद्ध हो गया है, किन्तु अन्तश्चेतना भौतिकता की चकाचौध मे विलीन हो गई है । आधुनिक युग मे राजनीति, धर्म और समाज में व्याप्त समस्त द्वन्द्वो का मूल कारण 'पर' का निषेध है। परिणामस्वरूप मतवाद, वाद-विवाद तीव्र गति से बढता जा रहा है। वादो के इस द्वन्द्व मे व्यक्ति का अस्तित्व क्षीण होता जा रहा है और वाद प्रधान हो गया है । जेनेन्द्र-साहित्य मे व्यक्ति वाद-विवाद से ऊपर है। उनकी दृष्टि मे समाजवाद, साम्यवाद, पूजीवाद सबके मूल मे धार्मिक दृष्टि अनिवार्य है । धार्मिक भावना व्यक्ति की नैतिकता का कवच है । उनके व्यक्तिवादी विचार मानवीय भावो और आदर्शों के सरक्षक है । प्रत्येक वाद प्रारम्भ मे व्यक्ति के हित का ही नारा लगाता है, किन्तु अन्तत उनकी स्वाथ-दृष्टि ही प्रमुख हो जाती है। मानव समाज का हित गौण हो जाता है । पूजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद मे व्यक्ति और समाज के हितो का पूर्ण रूप से ध्यान रखा गया था किन्तु अन्तत वे अर्थप्रधान हो गए है । उनमे परमार्थ का प्रभाव
१ हिन्दी साहित्य, तृतीय खण्ड---भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग, प्र० स०
१९६६, पृ० स० १६८-१७४। २ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ८, (वह क्षण), तृ० स०,
१६६४, दिल्ली, पृ० स० ६५ ।