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जनन्द्र का जीवन-दशन
यथार्थवाद नाम की वस्तु नही हो सकती। किन्तु मानव जीवन अखण्ड धारा है । वह आदर्श और यथार्थ के खण्डो मे विभाजित नही हो सकती। महादेवी जी के अनुसार किसी भी युग मे आदर्श और यथार्थ या स्वप्न और सत्य कुरुक्षेत्र के उन दो विरोधी पक्षो की तरह परिवर्तित करके खडे नही किए जा सकते, जिनमे से एक युद्ध की आग मे जल जाय और दूसरे को पश्चाताप की अग्नि में जल जाना पड़े। वे एक-दूसरे के पूरक रहकर ही जीवन को पूर्णता दे सकते है । अत काव्य उन्हे विरोधियो की भूमिका देकर जीवन मे एक नई विषमता उत्पन्न कर सकता है, सामान्जस्य नहीं ।
वस्तुत प्रादश और यथार्थ जीवन की विपक्षीय धाराए न होकर एक-दूसरे की पूरक हे । जयशकर प्रसाद ने यथार्थ और आदर्श की समन्वित दृष्टि अपने निबन्ध मे प्रस्तुत की है । उन्होने आदर्श की प्राप्ति के हेतु यथार्थ की उपेक्षा नही की है। उनके अनुसार-'यथार्थवादी साहित्य मे व्यक्ति की दुर्बलतायो की ओर इगित किया जाता है । उनकी दृष्टि मे यथार्थवादी साहित्य मे लघुता और दुख की प्रधानता तथा दुख की अनुभूति आवश्यक है।''
यथार्थ व्यथामूलक
जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त यथार्थवादी दृष्टि 'प्रसाद' के प्रादर्शो के समकक्ष प्रस्तुत की जा सकती है। यद्यपि 'प्रसाद' और जैनेन्द्र मे साम्य का कोई प्रश्न ही नही उठता तथापि मानवीय वेदना और प्रभाव का सादृश्य दोनो मे दृष्टिगत होता है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे यथार्थता का जो स्वरूप अभिव्यक्त किया है, वह मानव-आत्मा की वेदना और पीडा से सम्बद्व है। जैनेन्द्र के साहित्य मे यथार्थ स्थिति से अधिक मन स्थिति के दर्शन होते है। उनके उपन्यास और कहानियो के अध्ययन से मन मे यथार्थ जीवन की वीभत्सता, कुत्सा आदि का प्रकृत रूप दृष्टिगत नही होता । वह तो मानव-व्यथा से अपूर्ण है। उनके पात्र आदर्श के प्रतीक होकर हमारे मन मे श्रद्वा और भक्ति की भावना जाग्रत नही करते, वरन् उनका व्यक्तित्व हमारे हृदय को सहानुभूति और करुणा
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१ डा० जयनारायण मण्डल 'हिन्दी उपन्यासो की यथार्थवादी परम्परा',
प्र० स०, १९६८, पटना, पृ० स० ४। २ महादेवी वर्मा 'साहित्य की आस्था तथा अन्य निबन्ध' चयनकर्ता गगा
प्रसाद पाण्डेय, इलाहाबाद, १६६२, पृ० स० १४२ । जयशकर 'प्रसाद' 'काव्य कला तथा अन्य निबन्ध', इलाहाबाद, १० म० १३८ ।
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