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जैनेन्द्र ओर व्यक्ति
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से प्राई कर देता है । जैनेन्द्र के पात्र अपने महिमान्वित व्यक्तित्व से पाठक को चकाचो नही करते, वरन् जीवन की सहजता मे पूर्णत लीन कर देते है, जिससे जीवन की सत्यता के प्रति आखे खुल जाती है । जैनेन्द्र के अनुसार सम्माननीय नही नही हे जो महान है, प्रतिष्ठित है वरन् वह भी है जो पापी दिखायी देता है, परन्तु व्यथा मे पूर्ण है । '
'त्यागपत्र' में मृणाल का जीवन मानो व्यथा का गहरा सागर है । उसमे जितना ही डूबते जाम्रो उतनी ही गहरी पीडा का अनुभव होता है । जैनेन्द्र के साहित्य में वह समाज के नितान्त उपेक्षित, घृणित स्थल मे पहुचकर भी सम्माननीया बनी रहती है। उसके प्रति मन मे आक्रोष नही उत्पन्न होता । वरन् हृदय मे पीडा की गहरी टीस जाग उठती है जो समस्त चेतना को झकभोर देती है । वह एक-के-बाद-एक विषमस्थिति का सामना करती है । सामाजिक दृष्टि में व्यभिचारिणी समझी जाने वाली उस नारी की आत्मा की विशुद्धता और पवित्रता पर तनिक भी ग्राच नही आती । वस्तुत जैनेन्द्र के पात्र जितना अधिक पा रहे होते है उतनी ही प्रानन्द-सृष्टि मे सक्षम होते है । एक प्रोर पीडा मर्म को कचोटती है तो दूसरी ओर वही आत्म-तृप्ति भी देती है । वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति के कर्मों से ही उसकी नैतिकता तथा महानता का बोध नही होता, निष्कलुष आत्मा ही व्यक्ति का वास्तविक स्वरूप व्यक्त करने में सक्षम हो सकती है ।
पूर्णतावादी विचार
जैनेन्द्र के प्रदर्शवादी विचार पूर्णतावाद' के सदृश प्रतीत होते है । पूर्णता - बाद मे साहित्यिक यथार्थ और आदर्श के सदृश बुद्धि और भावना का द्वैत दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र का प्रादर्श प्रतत आत्मोन्मुख होना है । पूर्णतावादियो ने भी प्रात्मकल्याण, आत्म-साक्षात्कार तथा आत्मसन्तोष की ओर विशेषत ध्यान आकृष्ट किया है । पूर्णतावादियो की दृष्टि मे 'मनुष्य का स्वभाव अनेक प्रवृतियो, इच्छाओ और भावनाओ का जन्म स्थल है। इस स्वभाव मे कुछ भी ऐसा नही है जो पूर्णरूप से बुरा अतएव त्याज्य हो ।” उनके अनुसार आत्मा का रूप न तो केवल ऐन्द्रिक है और न केवल बौद्धिक । इस दृष्टि से ब्रेडले के अनुसार - - प्रात्मा का अपने पूर्णरूप मे सन्तुष्ट होना अर्थात् सम्पूर्ण आत्मा
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ५४६ ।
२. शान्ति जोशी 'नीतिशास्त्र' प्र० स०, १९६६, दिल्ली, पृ० स० २८७ ।
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