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जनेन्द्र और व्यक्ति
२१५ जैनेन्द्र की दृष्टि मे प्रानन्द और यथार्थ __हिन्दी साहित्य मे भारतीय दर्शन की परम्परागत विचारधारामो की पूर्णत अभिव्यक्ति की गई है। भारतीय दर्शन में नैतिकता का विशिष्ट स्थान है। आदर्श मे भी नैतिकता का पर्याप्त स्थान है । जैनेन्द्र से पूर्व के उपन्यासकारो ने अपने साहित्य मे नैतिकता को विशेषत प्रश्रय दिया है। मानव जीवन के अन्तस् और बाह्य का द्वैत साहित्य मे आदर्शवाद और यथार्थवाद के रूप में प्राप्त होता है । जैनेन्द्र का साहित्य वाद की पारिभाषिक सीमा से उन्मुक्त है । उसमे जीवन की यथार्थ और आदर्श-दृष्टि समानरूप से परिलक्षित होती है । यथार्थ की अतिशयता मे उनके पात्र अपनी आत्मशक्ति को क्षीण रही करते । वस्तुजगत, जिसका हम उपभोग करते है, जो इन्द्रिय-जगत का उपभोग विषय है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। भारतीय दर्शन मे समस्त इन्द्रियो को वशीभूत करके परम सत्य की ओर उन्मुख होने की चेष्टा दृष्टिगत होती है, किन्तु जैनेन्द्र के पात्र जीवन की यथार्थता की उपेक्षा नहीं करते । उनकी दृष्टि मे वस्तुजगत जीवन का स्थूल और व्यावहारिक सत्य है । स्थूलता से ही सूक्ष्मता की ओर उन्मुख हुआ जा सकता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे यथार्थ का जो स्वरूप स्वीकार किया गया है, वह प्राप्य है और वर्तमान से सम्बद्ध है। आदर्श अप्राप्य और असीम है। कोरा आदर्श आकाशीय कुसुम के सदृश होता है । आदर्श महान है, किन्तु महानता की प्राप्ति के हेतु निम्नता अथवा तुच्छता का निषेध नहीं किया जा सकता है । जैनेन्द्र के पात्र यथार्थ की धरती पर जीते और मरते है।' व्यक्ति ससीम है, आदर्श असीम है । अतएव व्यक्ति की अपूर्णता यथार्थ है और पूर्णता अर्थात् आदर्श की प्राप्ति ही उसका लक्ष्य है। यदि व्यक्ति को आदर्श का पुतला बनाकर चित्रित कर दिया जाय तो उसके समक्ष करने के हेतु कुछ शेष नहीं रह जाता। जगत की यथार्थता अथवा उसका अस्तित्व कर्म-कौशल मे ही निर्भर रहता है । पूर्णता की प्राप्ति होने पर कर्म अकर्म का प्रश्न ही नही उठता।
कतिपय साहित्यकारो के अनुसार कोई भी कलाकार या तो यथार्थवादी हो सकता है या आदर्शवादी। दोनो का मिश्रण किसी एक रचना मे सम्भव नही है । उसके अनुसार साहित्यक-निर्माण मे यथार्थोन्मुख प्रादर्शवाद या आदर्शोन्मुख
१ जैनेन्द्र कुमार 'सुखदा', प्रथम स०, १६५२, दिल्ली, पृ० स० १६० । २ 'कल्पना मे हम दिमाग को रख सकते है । पर इस पर पाव नही टिका
सकते । डग रखकर बढना धरती पर होता है।' -जैनेन्द्रकुमार . 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ८, (प्रणयदश) पृ० स० १३५।