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जैनेन्द्र और व्यक्ति विलुप्तप्राय हो गया है। पारमार्थिक दृष्टि
जैनेन्द्र का मूलादर्श व्यक्ति के जीवन मे पारमार्थिक दृष्टि की प्रतिष्ठापना करना है । परमार्थ ही जैनेन्द्र के साहित्य की प्रमुख नैतिकता और लक्ष्य है। जैनेन्द्र के साहित्य मे नीति और अनीति का प्रश्न अहिसा और हिसा के सन्दर्भ मे प्रादुर्भूत होता है । उनके साहित्य मे व्यक्ति के पारस्परिक स्नेह और प्रेम मे, चाहे वह स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे हो अथवा किसी भी मानवीय सम्बन्ध को लेकर फलित हो, अनैतिक नहीं है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे जहा प्रेम है, वहा पाप और अनैतिकता की कल्पना सर्वथा त्याज्य है । प्रेम पवित्र है । जैनेन्द्र की पाप और पुण्य की दृष्टि सकीर्णता की पोषक नहीं है, उनकी दृष्टि मे पाप का मूल 'अहनिष्ठा' तथा 'पर' के निषेध अथवा अप्रेम मे ही विद्यमान है। मानव-नीति
जैनेन्द्र-साहित्य मे व्यक्ति के अन्तर्जगत और बाह्य जगत् की समष्टि की झलक दृष्टिगत होती है । अन्त जगत् का विवेचन करते हुए उन्होने यथार्थवाद
और प्रादर्शवाद का अवलम्ब लिया है । यद्यपि यथार्थवाद बाह्य जीवन से सम्बद्ध है, किन्तु जैनेन्द्र के साहित्य मे उसकी सीमा व्यक्ति की निजता मे ही केन्द्रीभूत है। जैनेन्द्र ने बाह्य-स्थितियो का बहुत विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। उन्होने समाज, धर्म, राजनीति और अर्थ-नीति के सन्दर्भ मे व्यक्ति-जीवन को घटित होते हुए दर्शाया है । जैनेन्द्र ने शोषक-शोषित, श्रम-पूजी, मशीन-उद्योग तथा विभिन्न राजनीतिक वादो के सन्दर्भ मे व्यक्ति जीवन की ही विवेचना की है । व्यक्ति अकेला जीवित नहीं रह सकता। उसके लिए सामाजिक, राजनीतिक आदि व्यवस्थाप्रो का होना आवश्यक है । व्यक्ति समाज, राज, राष्ट्र और विश्व से ऊपर 'मानव' है । अतएव उनके साहित्य मे राष्ट्रवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि के मूल मे 'मानव-नीति' का ही प्राधान्य है । वे विश्व के स्तर पर पडौसी को भूल जाना उचित नही समझते । यद्यपि यह सत्य है कि बृहदतर हित के हेतु लघुतर हित का त्याग सराहनीय है, किन्तु पडौसी के दुख-दर्द की उपेक्षा करके होने वाली विश्व-प्रगति मानवता से विपरीत है । वस्तुत जैनेन्द्र के व्यक्ति सम्बन्धी दृष्टिकोण को व्यक्तिगत और सामाजिक परिप्रेक्ष्य मे व्यक्त किया गया है। जीवनादर्श : दार्शनिक दृष्टि
आदर्श और यथार्थ दो जीवन-दृष्टि है। एक आत्मगत सत्य को स्वीकार