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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
करती है, दूसरी बाह्य जगत की सत्यता को स्वीकार करती है । 'यथाथ' समयसापेक्ष्य सत्यता (रियल्टी) का सूचक हे । 'आदर्श' श्रात्मगत सत्य होने के कारण यथार्थ के सदृश परिवर्तनीय नही हे तथापि व्यक्ति भेद के कारण यादर्श की मान्यताप्रो मे भी अन्तर दृष्टिगत होता है । एक लेखक की ष्ट मे जो नितान्त यथार्थ है, दूसरे की दृष्टि मे वही आदर्श हे । भारतीय तथा पाश्चात्य दशन मे 'शाश्वत सत्य' की खोज के हेतु प्रात्मगत प्रादर्शवादी दृष्टि (सब्जेक्टिव प्राइडियलिज्म) ही विशेषत दृष्टिगत होती है । ईश्वर, जीव, ग्रात्मा आदि विषयो की सत्यता का बोध आत्मचेतना द्वारा ही सुलभ हो सकता है ।
भारतीय दर्शन मे चारवाक दर्शन को छोडकर शेष सभी दर्शनो मे प्रदर्श नीतिपरक जीवन को ही परम आदर्श के रूप मे स्वीकार किया गया है । अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष मे, मोक्ष की प्राप्ति को ही मानव जीवन का लक्ष्य माना गया है । उनकी दृष्टि मे भौतिक जगत से इतर प्राध्यात्मिक जगत ही एकमान सत्य है । वस्तुगत माया-मोह प्रादि नाना विकारो का केन्द्र हे । श्रात्मोन्मुख व्यक्ति समस्त सासारिक बन्धनो से मुक्त होकर ईश्वरीय साक्षात्कार के हेतु प्रयत्नशील होता है | अद्वेतवादी शकराचार्य के अनुसार जगत मिथ्या है । गौतमबुद्ध ने संसार को दुखमय माना है । बौद्ध तथा जैन धर्म मे ससार से मुक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न विशेषत दृष्टिगत होता है । जैन धर्म में भी कैवल्य की प्राप्ति हेतु त्याग, तपश्चर्या, ब्रह्मचर्य आदि पर बल दिया गया है, किन्तु चारवाक दर्शन मे भौतिक सुख को विशेष महत्व प्रदान किया गया है । चारवाक दर्शन मे अर्थ और काम को ही प्रधानता मिली हे । श्रात्मा, ईश्वर, स्वर्ग, कर्म और मोह की धारणाओ का निराकरण करके चारवाक ने त्याग अपरिग्रह, सन्यास, परोपकारिता आदि की उपेक्षा की है । उनकी दृष्टि मे भौतिक सुख ही एकमात्र सत्य है ।" 'गीता' मे यह समझाने का प्रयास किया गया है कि अपनी चेतना के उच्चतम स्तर मे रहकर भी व्यक्ति कम कर सकता है । इसलिए उसने सदाचार के प्रश्न को उठाकर कर्तव्य का सन्देश दिया है । कर्तव्य के सन्देश के मूल मे जगत की सत्यता की धारणा ही दृष्टिगत होती है। गीता अकर्म एव कर्म त्याग या कम सन्यास को स्वीकार नही करती । गाँधीजी ने व्यक्ति के दुर्बल तथा उन्नत दोनो पक्षो पर ध्यान आकृष्ट किया है । मनुष्य पशुता से ऊपर उठकर आत्मानन्द की प्राप्ति कर सकता है ।
'नीतिशास्त्र', पृ० स० ३२२ ।
१ शान्ति जोशी २ शान्ति जोशी 'नीतिशास्त्र', पृ० स० ३२१ ।
३ 'श्रीमद्भगवद्गीता', प्रत्याय २, श्लोक ४६-५० ।