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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
विज्ञान के विकास के साथ-साथ व्यक्ति का महत्व बढता गया । मनोविज्ञान द्वारा व्यक्ति के आन्तरिक सघर्ष को समभाने की चेष्टा की गई है । व्यक्ति का बाह्यरूप ही उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का परिचायक नही है । जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे व्यक्ति के समग्र रूप की अभिव्यजना की है । अचेतन मन अथवा अन्तनिष्ठ चेतना व्यक्ति के समस्त व्यवहारो की नियामक है । जैनेन्द्र के अनुसार अचेतन मन व्यक्ति की कुत्साप्रो और जुगुप्साम्रो का केन्द्र न होकर, उसकी अभीप्सायो का स्त्रोत है। जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति के अन्तर्तम सत्यो की स्पष्टतम अभिव्यक्ति दृष्टिगत होती है । उनके साहित्य मे व्यक्ति जीवन का वही रूप दृष्टिगत होता है, जैसा कि हम व्यावहारिक जीवन मे देखते और विचार करते है । व्यावहारिक जीवन मे व्यक्ति सत्यता पर आवरण डालकर अपने हृदय रूप को ही व्यक्त करता है, जिससे उसका वास्तविक रूप प्रकट नही हो पाता । साहित्य का कार्य व्यक्ति की अन्तनिहित सत्यता का उद्घाटन करना है। व्यक्ति समाज मे अपने गुण-दोष मे व्यक्तित्व को प्रकट करने मे सकोच करता है । वह अपने आचरणो को बहुत ही सशोधित तथा आदर्श रूप मे व्यक्त करता है। किन्तु व्यक्ति का जीवन निर्दोष नही है । वह सद्-असद् गुणो का मिश्रण है । जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति मे राग, द्वेष, प्रेम और घृणा आदि मानवीय भावनाओ का होना स्वाभाविक ही है । उनके साहित्य मे अभिव्यक्त, व्यक्ति न देवता है और न ही पशु है । वह तो निरा व्यक्ति है । व्यक्ति का आदर्श पशुत्व से उठकर देवत्व की प्राप्ति की ओर उन्मुख होना है। व्यक्ति के सम्बन्ध मे जैनेन्द्र की दृष्टि नितान्त अछूती और सहजता की परिचायक है। उनकी दृष्टि मे व्यक्ति सदैव उर्वता की ओर उन्मुख है । वह न तो आदर्श की सीमा मे आबद्ध होकर जडित और चेतन शून्य है और न ही पाशविक प्रवृत्तियो से युक्त दानव है । मनुष्य देवता और दानव के बीच की स्थिति है। ____ जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति के स्वरूप समाज मे उसके अस्तित्व, तथा उसकी अतनिष्ठ भावनाओ का पूर्ण प्रकाशन दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति के यथार्थ जीवन का बिम्ब ही नही प्रस्तुत किया गया है, वरन् उनमे व्यक्ति के आदर्शमय जीवन की सम्भावनाप्रो की ओर भी लक्ष्य किया गया है । उनके साहित्य मे व्यक्ति यथार्थ और आदर्श की पूर्ण इकाई है। जैनेन्द्र के पात्र यथार्थ जगत के व्यक्ति है, पुराण पुरुष नही है। उनकी जिन कहानियो का विषय पौराणिक है, उनमे भी मानवीय भावो और कृत्यो का उद्घाटन किया गया है । अहनिष्ठ देवत्व मे आत्मसमर्पण के भावो की प्रेरणा जाग्रत की गई है। उनकी दृष्टि मे मनुष्य देवतापो से भी ऊपर है, क्योकि उसकी सम्भावनाए अनन्त है । प्रात्मदास द्वारा वह स्वर्ग के राज्य को भी तुच्छ सिद्ध कर सकता