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जैनेन्द्र र धर्म
प्राप्ति के हेतु ही किया हुआ समझना चाहिए ।"
सभी धर्मों के प्रति समान आदर की भावना रखते हुए भी जैनेन्द्र ने स्वधर्म को ही श्रेष्ठ माना है ।" जैनेन्द्र का धर्म जैन धर्म है । जैनी होने के कारण जैनेन्द्र स्वयं को जैन धर्मावलम्बी मानते है । जैन धर्म के अधिकाश आदर्शो का उन्होने सपने सृजनात्मक साहित्य मे प्रतिपादन किया है । ग्रहिसा, सत्य, अपरिग्रह, प्रान्तेय, ग्रहशून्यता आदि के उनके उपन्यासो मे स्पष्ट ही दर्शन होते हे । स्वधर्म जीवन का आदर्श होते हुए भी सीमित होना चाहिए । जब स्वधर्म को हम असीम मानकर चलने लगते है, तभी सघर्ष उत्पन्न होता है और यह विवादात्मक द्वन्द्व हिसा का पोषक हे । अपने धर्म को ही निरपेक्षरूप से महान धर्म मानना उचित नही है, क्योकि जिस प्रकार हमारा धर्म हमे प्रिय है और श्रेष्ठ प्रतीत होता है, उसी प्रकार दूसरे का धर्म उसे भी श्रेष्ठ प्रतीत हो सकता
| जैनेन्द्र जेनी होते हुए भी जैनेतर को अपना भाई समझना चाहते है । उनके नुमार जैन धर्मी 'मानवधर्मी' होकर ही सर्वसुलभ और उपयोगी हो सकता है । वह सच्चा जैन बनने के द्वारा ही साधारणतया सच्चा प्रादमी बन सकता है। सच्चा प्रादमी बनने के लिए उसे अपने जन्म अथवा जीवन की स्थिति को कार करना पडेगा । इसकी जैनेन्द्र को कोई जरूरत नही मालूम पडती ।" जैनन्द्र जैन धर्म की स्याद्वादी विचारधारा के प्रभाव के कारण ही विविध धर्मो की प्रनेकता को मिटाने के पक्ष मे नही है । हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म सब सत्य हे, " किन्तु उन सब की विभिन्नता एक
१ (क) गीता मे भी स्वीकार किया गया है—
सा चेष्टते स्वस्या, प्रकृते श्रपि,
प्रकृतिम् यस्ति, भूतानि, निग्रह, किम् करिष्यति ।
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श्लोक ३३, अध्याय २ ।
( ख ) -- जैनेन्द्रकुमार ' जयवर्धन' प्र० स० पृ० १९६, १६७, २१५ । या स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्वमुष्ठितात् ।
स्वधर्ममिधन श्रेय परधर्मो भयत्वह गीता ||३५|| अ० ३ ।
जैनेन्द्र 'मन्थन', पृ० ८१ ।
जैनेन्द्र 'मन्थन', पृ० ८१ ।
'अपना धर्म छोड़कर सब धर्मों को एक बनाने की कोशिश बेकार कोशिश है | धर्मों की एकता तो परमधर्म मे ही है ।'
- जैनेन्द्रकुमार 'मन्थन', पृ० ८५ ।