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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
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ज्ञात होता है कि उन्होने पुरुषार्थ का निषेध नही किया है । ईश्वर को ही एकमात्र सत्य मानने के कारण उनके कर्म सम्बन्धी विचारो मे भी व्यक्ति के अह भाव के दर्शन नही होते । जैनेन्द्र के कर्म सम्बन्धी विचारो पर गीता की निष्काम कर्म साधना तथा कर्म-अकर्म की मान्यता का प्रभाव स्पष्टत दृष्टिगत होता है।
'श्रीमद्भगवद्गीता' मे अर्जुन को उपदेश देते हुए कृष्ण ने कहा है कि 'कम क्या है और अकर्म क्या है इस विषय मे बुद्धिमान पुरुष भी मोहित है । जो पुरुष कर्म मे अर्थात् अहकार रहित की हुई सम्पूर्ण चेष्टाप्रो मे अकर्म अर्थात् वास्तव मे उनका न होना पाना देखे और जो पुरुष अकर्म मे अर्थात् अज्ञानी पुरुष द्वारा किए हुए सम्पूर्ण क्रियाप्रो के त्याग मे भी कर्म को अर्थात् त्याग रूप क्रिया को देखे, वह पुरुष मनुष्यो मे बुद्धिमान है और वह भोगी सम्पूर्ण कर्मो का करने वाला है।''
जैनेन्द्र के अनुसार 'कर्म' मे 'अकर्म' की भावना व्यक्ति को व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख करती है तथा व्यक्ति स्वार्थ को भूलकर परमार्थ हेतु ही जीवनयापन करता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति का कर्म-शील होना ही कोई बडी बात नही है। कर्मशीलता के साथ ही उसमे कर्म के प्रति अनासक्ति का होना भी आवश्यक है। आसक्त भाव से किए गए कार्य मे स्वार्थ की झलक दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'कर्म से स्वार्थ पैदा होता है अकर्म से नि स्वार्थ है ।
जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास 'जयवर्धन' मे कर्म तथा अकर्म के स्वरूप को जूट के उद्धरण द्वारा बहुत ही स्पष्ट रूप मे व्यक्त किया है। उनके अनुसार जैसे 'नारियल के जटाजूट और उसके बाद के खप्पर का मूल्य यही है कि भीतर गिरी है, गिरी अकर्म है तो कर्म तो वह जटाजूट ही है । इस दृष्टान्त द्वारा लेखक ने कर्म के मूल में निहित अकर्म की भावना का रूप दर्शाया है। ऊपर से आकर्षक न प्रतीत होने वाली वस्तु के भीतर भी वस्तु का मूल अर्थ
१ श्रीमद्भगवद्गीता--'कि कर्मकिम कर्मेतिकवयोऽप्यत्र मोहिता ।। तत्ते कर्म प्रक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥
-अध्याय ४ २. 'कार्यकर्ता का काम कार्य करना तो है ही, पर बड़ा काम अपने को अना
सक्त रखना है । अनासक्ति से काम मे हार नहीं मालूम होगी, वह सतत् होगी, और फल भी उसका मीठा और बड़ा होगा।'
-जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १६५६, पृ० स० २२० । ३ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १९५६, पृ० स० २६२ । ४ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १९५६, पृ० स० २२० ।