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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
वर्तमान तथा दृश्य जगत तक ही सीमित है, किन्तु ईश्वर सर्वव्याप्त है । भाग्य का प्रत्यक्ष प्रभाव न देखकर यह नही समझना चाहिए कि भाग्योदय नही हुआ । भाग्य का ज्ञात एकमात्र ब्रह्म ही है, व्यक्ति की स्थूल दृष्टि प्रजेय सत्य का बोध प्राप्त करने में असमर्थ है ।
प्रयत्न के द्वारा व्यक्ति की समग्रता को नही जाना जा सकता । जैनेन्द्र के अनुसार कार्य मे सफल न होने पर प्रयत्न की व्यर्थता नही सिद्ध होती । उनकी दृष्टि में भाग्य शायद पुरुष के अर्थ को ज्यादा जानता है ।' जैनेन्द्र के साहित्य मे उसी कर्म को सप्रयत्न के रूप मे स्वीकार किया गया है, जिसमे कामना का न हो ।
भाग्य को सहर्ष स्वीकार करने से व्यक्ति भाग्य के नियत्रण मे नही रहता । भाग्य सर्वथा अजेय है । अज्ञात के रहस्य को जात मे पूर्णत उतारने का दम्भ मिथ्या है | अज्ञात असीम है, ज्ञात ससीम है । असीम को ससीम मे बाधने के प्रयत्न मे व्यक्ति का अर्थ सिद्ध नही होता । प्रयत्न (कर्म) की धारा अनन्तकाल तक प्रवाहित होने के लिए है । विधाता का विरोध करने का दृढ सकल्प मन मे रखकर भी व्यक्ति अन्तत ईश्वरेच्छा पर अपने को समर्पित कर देता है । वस्तु जैनेन्द्र के साहित्य मे भाग्य की क्रूरता पर क्षोभ का भाव नही दृष्टिगत होता, क्योकि उन्हे भाग्य दुख ही नही सुख का वरदान भी प्रतीत होता है । सुख मे व्यक्ति विधाता को भूला रहता है और दुख मे उसकी याद करता है । 'त्यागपत्र' मे एक स्थान पर जैनेन्द्र ने भाग्य के समक्ष विनत होने वाले प्रमोद (जत) की भावो की अभिव्यक्ति करते हुए बताया है कि जो होता है उसके लिए विधाता को तो दोष दे नही सकता, क्योकि उन तक किसी प्रकार मै अपना धन्यवाद तक नही पहुचा सकता । वस्तुत जैनेन्द्र के पात्र किसी को दोषी न ठहराकर स्वयं को ही पतित मानते है । इस प्रकार वे अहता का निषेध करते हुए ईश्वर का ( भाग्य का ) सहयोग पाकर प्रसन्न रहते है । उनमे यह विश्वास समाया हुआ है कि जीव ब्रह्म का प्रश है अतएव जीव के दुख से विधाता निरपेक्ष नही हो सकता ।
कर्माकर्म भाव
जैनेन्द्र के साहित्य में भाग्य सम्बन्धी विचारो का विश्लेषरण करते हुए यह
१ जैनेन्द्रकुमार 'इतस्तत' पृ० स०, दिल्ली, १९६२, पृ० स० १६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'विवर्त', प्र० स०, दिल्ली, १९५३, पृ० स० २१७ । ३ जैनेन्द्रकुमार ' त्यागपत्र', प्र० स, पृ० स० ४५ ।
४ जैनेन्द्रकुमार ' त्यागपत्र' प्र० स० पृ० स०४५ |