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परिच्छेद-५
जैनेन्द्र के अहं सम्बन्धी विचार
जैनेन्द्र के साहित्य में ग्रह की स्थिति ___ जैनेन्द्र-साहित्य की आत्मा अथवा उसका मूल स्वर उनके अह सम्बन्धी विचारो मे ही मुखरित हुआ है । जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे अहभाव विभिन्न सन्दर्भो मे व्याप्त है। अह ही वह बिन्दु है, जिससे उनकी समस्त साहित्यरचना प्रस्फुटित होती है। जैनेन्द्र का साहित्य वस्तु-जगत के आवेग और प्रदर्शन से अभिप्रेत न होकर अतस् की व्यथा से ही अनुप्राणित है । अन्तर्वेदना ही वह मूल स्त्रोत है, जहा से उनकी सम्पूर्ण साहित्य-सरिता प्रवाहित होती है । व्यथा अन्तर्मुखी है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति का आधार व्यक्ति की अहता ही है। अह अर्थात् मै के अस्तित्व द्वारा ही अत धारा बहिर्गत हो सकती है। वस्तुत अह आत्मजगत और वस्तुजगत के मध्य द्वार के सदृश्य है । जैनेन्द्र ने अह को द्वार मात्र ही माना है।' द्वार का कार्य आतरिक और बाह्य जगत मे सामजस्य स्थापित करना ही है । द्वार स्वय मे किसी जगत का प्रतिनिधि नही बन सकता, यही धारणा जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचारो का आधार है। उनके साहित्य का प्रेरक तत्व अचेतन मन (अनकान्शस माइण्ड) नही है, वरन् अतस् व्यथा है। यही जैनेन्द्र की अह सम्बन्धी विचार का महत्वपूर्ण अग है, जो उनके साहित्य मे विभिन्न परिप्रेक्षो मे अभिव्यक्त हुआ है। मानव-शरीर और आत्मा का अन्तर
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जैनेन्द्रकुमार · 'समय और हम', प्र० स०, १९६२, दिल्ली, पृ० ६ ।
'अह निजता और विश्वता के बीच द्वार'