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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
हो जाते है कि उनमे स्वत्व और परत्व का भेद मिट जाता है तथा वे स्वत्वहीन हो जाते है, तभी उन्हे प्रभेदत्व अर्थात् परमत्व का साक्षात्कार होता है । इस प्रकार उनकी अहता आत्मोन्मुखता मे विलीन हो जाती है । '
जैनेन्द्र के साहित्य मे 'अस्मि' और अस्ति का द्वन्द्व स्त्री और पुरुष को लेकर ही घटित होता है । अनन्तर में एक स्थल पर उन्होने स्पष्टत स्वीकार किया है कि मूल द्वैत वही है - 'स्त्री-पुरुष' । द्वैत यथार्थ जगत का सत्य है, पारमार्थिक जगत का सत्य नही है । अन्तिम सत्य अद्वैत है । ससार पुरुषमय है । यदि द्वैत को सत्य मान लिया जाय तो ससार द्वैत के स्थान पर द्वन्द्वमय ही रह जायगा, किन्तु मानव प्राणी शान्तिप्रिय है । ऊपर से कितना ही द्वन्द्व क्यो न चलता रहे, किन्तु उसकी अन्त्स आत्मा अभेदत्व तथा प्रेम और शान्ति के लिए तडपती रहती है । जैनेन्द्र के साहित्य का द्वन्द्व स्त्री-पुरुष अथवा स्व-पर अथवा
त और बाह्य जगत को लेकर ही फलित होता है, किन्तु सब के मूल मे प्रेम का अभाव, समर्पण की उपेक्षा ही विद्यमान है । जैनेन्द्र प्रेम के द्वारा ही पारस्परिक अलगाव अथवा द्वैत को दूर करने के पक्ष में है । 'अनन्तर' मे उनकी इस अद्वैतप्रियता के दर्शन होते है । उनके अनुसार ससार मे व्याप्त द्वैत भाव फटकर दो नही हो सकता, क्योकि उनके बीच स्नेह की विवशता है । स्त्री और पुरुष को स्नेह की चुम्बकीय शक्ति ही परस्पर विलग होने से वचित रखती है । जैनेन्द्र के अनुसार 'दोनो उसी मे सफल होने को विवश है । ( उसका हमे क्या अभिनन्दन करना चाहिए ? ) " स्त्री और पुरुष अस्ति के भाव से युक्त है, किन्तु यह 'मैं' 'पर' भाव स्थाई नही है । महता सदैव समर्पित होने के हेतु विवश है । 'स्व' 'पर' मे जहा होड है, वही परस्पर समर्पित होने की भी उत्कट लालसा है ।' 'स्व' 'पर' मे खोकर ही परम सत्य का बोध प्राप्त करने में सक्षम है ।
१ 'स्व' 'पर' के विभिन्न से बने उन सब द्वन्दो की समाप्ति वहा ही प्राप्य हो सकती है जहा स्व-पर भेद पहुचता ही नही है । उसी को भगवत - चेतना का स्तर कहा जाता है ग्रह उसमे विगलित होता है ।'
— जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५३७ ।
२ जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ३६ । ३ जैनेन्द्र 'अनन्तर' पृ० ३६ ।
४ ' एक मे दूसरे पर विजय की भूख है, किन्तु एक को दूसरे के हाथो पराजय
की भी चाहना है ही । दोनो मे परस्पर होड है, उतनी ही तीव्र जितनी
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दोनो मे परस्पर के लिए उत्सर्ग होने की अभिलाषा ।'
- जैनेन्द्रकुमार 'सुनीता', १९६४, दिल्ली, पृ० स० १३६-१३७ ।