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जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार
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को जान ही नही सकता । 'मैं' अविजित समझने वाला व्यक्ति सदैव ग्रहता से पीडित रहता है । 'व्यर्थ प्रयत्न' मे चिन्तामरिण सासारिक विषय-वासनाओ से ऊपर उठकर स्वयं पर विजय प्राप्त करना चाहता है । वह अपने मन की दुर्बलता को विजित करना चाहता है, किन्तु उसका दभ उसे ही पीडित करता रहता है, क्योकि सत्य मै के समर्पण द्वारा ही प्राप्य है । समर्पण प्रेम मे सम्भव होता है । ज्ञानी झुकता नही, टूट जाता है । इसीलिए जैनेन्द्र ज्ञान को दम्भ मानते है । 'विचार' मे यदि व्यक्ति का अभाव बहुत अधिक सजग रहे तो व्यक्तित्व सन्तुलित हो जाता है । 'व्यर्थ प्रयत्न' मे चिन्तामणि के विचारप्रवाह मे उसकी हता बहुत उग्र रहती है । यही कारण है कि ग्रह का व्यक्तितत्व बहुत असन्तुलित रहता है ।
निष्कर्षत जैनेन्द्र के साहित्य मे ग्रह की सार्थकता अस्तित्व के अर्थ मे ही स्वीकार की गई है, अन्यथा ग्रह (जीव ) की ग्रहकार मूलक भावना का सदैव निषेध किया गया है ।
१. सोच-विचार मे मनुष्य का अहम् बहुत मिला रहे तो जड होती है उसी को कहते है 'सेल्फ काशस' । इस स्थिति में मनुष्य के व्यवहार का सरल भाव नष्ट हो जाता है ।
-- जैनेन्द्रकुमार 'सुनीता', पृ० स० १३५ ।