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जैनेन्द्र और समाज
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साहित्य का एकमात्र लक्ष्य सत्य का उद्घाटन करना है । जैनेन्द्र का साहित्य समाज का ही दर्पण नही है, वरन् वह व्यक्ति जीवन के अन्तर्द्वन्द्व को उभारने मे भी सहायक है ।
परिवर्तनशील मान्यताए
समाज मे रहकर उसकी मर्यादाओ की उपेक्षा नही की जा सकती । किन्तु उनकी दृष्टि में सामाजिक नियम भी पत्थर की रेखा नही है । जीवन परिवर्तनशील है । अतएव सामाजिक नियमो का भी परिवर्तनीय होना आवश्यक है । अन्यथा 'प्रगति' शब्द निरर्थक ही प्रतीत होगा । व्यक्ति सामाजिक प्राणी है । अतएव उस पर समाज की मर्यादाओ का लागू होना सगत है किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम सामाजिक मर्यादा के अन्तर्गत नही आता ।' वे समाज की मर्यादाको अन्तिम वस्तु नही मानते । उनकी ऐसी धारणा है कि 'स्व' से मुक्त होकर ही व्यक्ति अथवा समाज की प्रगति सम्भव हो सकती है । प्रेम के मार्ग मे जो लोग समस्त बन्धनो की उपेक्षा करते हुए आगे बढते जाते है, वे ही कालान्तर मे पूज्य बन जाते है । इस दृष्टि से मीरा का आदर्श स्पष्ट प्रमाण है । मीरा यदि प्रारम्भिक बाधाओ से विचलित होकर प्रेम से विमुख हो जाती तो आज वह इतनी मान्य नही हो सकती थी । जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का मूल स्वर प्रेम होने के कारण, किसी भी स्थिति मे अस्वीकार्य नही हो सकता | जैनेन्द्र के अनुसार समाज मे नैतिकता की जो दुहाई दी जाती है, वह केवल ऊपर से थोपी हुई मान्यता है उनकी दृष्टि में सच्ची नैतिकता तो परस्पर के विश्वास मे से फलित होती | विवाह के वर्तमान रूप मे सारा ध्यान विवाहेत्तर सम्बन्धो पर इतना केन्द्रित रहता है कि व्यभिचार कहकर हम उसी की दुहाई देते रह जाते है और समाज के शरीर मे विवाह की रूढ प्रणाली से रोग के गहरे कीटाणुओ की ओर से विमुख बने रहते है । विवाह के नीचे कितना सडाध, कलुष और मालिन्य उपजता और जमा होकर रोग उत्पन्न करता है, इसका हम लेखा-जोखा ही नही लेते। ऐसी स्थिति मे भी हम ऊपर से सामाजिक बने रहने का गर्व करते है । वस्तुत ऐसे मोटापे से क्या लाभ जो शरीर के रोग को छिपाए हुए हो । वास्तविकता यही है कि आज का समाज ऊपरी मर्यादा और आदर्श का चोला पहने हुए भीतर कालिमा से लिपटा है । अतएव यदि साहित्यकार उस कलुष के उक्त की ओर ध्यान केन्द्रित करता है
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१ जैनेन्द्र कुमार 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० १४३ ॥
२. जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।