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जैनेन्द्र और समाज
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अपने से अलग फेक चुका हू ।" "उनकी भुझलाहट तथा अपने ऊपर डाले Te अप्राकृतिक दबाव की ओर इंगित करता है । इससे स्पष्ट है कि उनकी प्रक्रिया सहज न होकर उनके रुग्ण मन की ही परिचायक है ।
वस्तुत जैनेन्द्र की 'विज्ञान' कहानी मे रुग्ण मानसिकता ही दृष्टिगत होती है । जितनी वैज्ञानिक वृत्ति दृष्टिगत होती है, उसमे प्रतिक्रिया ही है, सत्य नही है । इस कहानी मे प्रकृत मनुष्य क्षतिग्रस्त होता है, जो क्षतिग्रस्त है, वह निश्चय ही पूर्ण नही है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे विज्ञान और वैज्ञानिक वृत्ति अपने मे परिपूर्ण नही है। उसमे सवेदना और मनुष्यता के सस्पर्श की आवश्यकता बनी ही रहती है । यही कारण है कि अन्त मे ब्रह्मचर्यं का ढोग टूटता है और सत्य प्रकट हो जाता है । वस्तुत जैनेन्द्र ने काम की चर्चा करते हुए उसके मूल मे स्नेह की स्निग्धता को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है । 'विज्ञान' कहानी मे लेखक के विचार कहानी की घटनाओ मे नही प्राप्त होते है । लेखक की दृष्टि कहानी से तटस्थ होकर देखने पर ही प्राप्त होती है । वस्तुत जैनेन्द्र पर अनैतिकता अथवा असामाजिकता के प्रसार का आरोपण मिथ्या प्रतीत होता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे सत्य पर ही नैतिकता का मानदण्ड निर्धारित किया जा सकता है । झूठ मे ही पाप पलता है ।
जैनेन्द्र ने अपने एक नवीनतम निबन्ध 'कला और अश्लीलता' मे सत्य के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि सत्य को सस्कृति की मर्यादा मे ही विवेचित किया जा सकता है । उनके अनुसार सत्य प्रकृति तक ही नही है, संस्कृति मे भी व्याप्त है । 'संस्कृति' शब्द मे प्रकृति का ज्यो का त्यो स्वीकार नही है, बल्कि उसके सस्कार की अनिवार्यता का भी सकेत है। जैनेन्द्र के साहित्य ने सत्य का नग्न प्रदर्शन वही तक स्वीकार है, जहा तक कि उसमे असत्य अथवा मिथ्याचार का मिश्रण नही है । जैनेन्द्र के अनुसार जीवन के सत्य और कला के सत्य मे अन्तर है । समाज मे जो मर्यादा होनी चाहिए वह कला मे उसी रूप मे उपयुक्त नही की जा सकती । उसमे बन्धन ढीला करना कला की दृष्टि से अनिवार्य है । जैनेन्द्र ने 'धर्माभिमुख कला को ही छूट
१. जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', प्र० स०, भाग १, पृ० स० ११२ । २ उपरोक्त विचार जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त हुए । उनके विचारो से यह स्पष्ट होता है कि वे 'विज्ञान' कहानी मे नारी शरीर को लेकर अभिव्यक्त वैज्ञानिक वृत्ति के पक्ष मे नही है ।
३. जैनेन्द्रकुमार 'कला और अश्लीलता' (प्रकाशित साप्ताहिक हिन्दुस्तान ), ८ नवम्बर १९७० ई०,
पृ०
स०७ ।