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जैनेन्द्र और समाज
तक नही है । वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार पुरुषातीत अवस्था मे पुरुष मे स्त्रीत्व स्वय गर्भित हो जाता है और यही स्थिति स्त्री मे भी होती है। इस प्रकार जैनेन्द्र की दृष्टि मे लिगहीनता नपुसकता की पर्याय नही प्रतीत होती है । जैनेन्द्र ने लिगहीनता को व्यक्तित्व की समग्रता के अर्थ मे ग्रहण किया है । उन्होने महत् आदर्श को लिग की उभयता के पार देखने की चेष्टा की है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे यह आदर्श असामाजिक और अप्राकृतिक न होकर अत्यन्त ही व्यावहारिक है । प्रत्येक स्थिति मे अपने पुरुषत्व तथा स्त्रीत्व के प्रदर्शन मे से व्यक्तित्व का छिछलापन ही प्रकट होता है। जैनेन्द्र की कहानियो मे अधिकाशत यही स्थित दृष्टिगत होती है, जब कि उनके पात्र समर्पण द्वारा नितान्त अहशून्य हो जाते है और उन्हे अपने स्त्रीत्व अथवा पौरुष का ही बोध नही रहता। वे कालखण्ड से ऊपर, भौतिक द्वैत से परे अद्वैत की अनुभूति करते है । वस्तुत स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे कामभावना स्वत ही तिरोहित हो जाती है। जैनेन्द्र के अनुसार 'काम' अकेलेपन को खोने की औषधि के रूप मे आता है और रोग वह नही है । काम मे प्रेम द्वारा द्वैत को अभेदत्व की ओर उन्मुखता प्राप्त होती है ।
नैतिकता
जीवन मे काम को अस्वीकार करके ब्रह्मचर्य की साधना करना भी व्यक्ति का धर्म तथा अहकार है । सत्य की शक्ति के कारण ही मन का झूठ पराजित हो जाता है और व्यक्ति को टूटना पडता है । 'अकेला' शीर्षक कहानी मे साधु ब्रह्मचर्य की कामना करने वाला व्यक्ति स्वय को धोखा नही दे पाता है और कहता है, 'अकेला मै नही रह सकता, प्रिये । अकेला रहना मेरे लिए अधर्म है।' जैनेन्द्र के अनुसार झूठ के डडे पर चढकर समाज मे ऊचा उठने से अच्छा है, मन के सत्य को स्वीकार करके स्वय को समर्पित कर देना, क्योकि सत्य बाह्य आचरण मे ही नही, अन्तस् और बाह्य की समग्रता मे ही सम्भव है।
जैनेन्द्र की कतिपय कहानियो पर असामाजिकता और अनैतिकता का दोषारोपण किया जाता है इस दृष्टि से उनकी 'वि-ज्ञान' कहानी विशेष रूप से चर्चित रही है । यह कहानी साहित्य-जगत् मे अत्यधिक वाद-विवाद का विषय रही है। 'वि-ज्ञान' मे स्थूलत ऐसा प्रतीत होता है, मानो लेखक ऐसी काल
१. जैनेन्द्र कुमार . 'जयवर्धन', पृ० ३२४ । २. लव मेक्स वन आफ टू 'वृट्ज विटेल्स क्रिटिक आफ लव, प्र० स०,
लन्दन, १६३०, पृ० २५६ ।